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________________ 290 :: मूकमाटी-मीमांसा (१४) " स्वभाव से ही सुधारता है / स्व-पन स्वपन स्व-पन / अब तो चेतें- विचारें अपनी ओर निहारें / अपन अपन अपन / यहाँ चल रही है केवल तपन तपन तपन" .!" (पृ. १८६) काल की महाशक्ति जब अपना पाश निकालती है तो उसमें जड़-चेतन सभी आबद्ध हो चिर विराम की आकांक्षा कर उठते हैं। यही नियति है और यही परम शाश्वत सत्य । दूसरे खण्ड का इसी भावना की सार्थकता में समापन होता है, यथा : "अधर में डुलती - सी / बादल - दलों की बहुलता अकाल में काल का दर्शन क्यों ? / यूँ कहीं " निखिल को एक ही कवल बना / एक ही बार में / विकराल गाल में डाल "बिना चबाये / साबुत निगलना चाहती है !" (पृ. १८७) 1 तीसरे खण्ड का शीर्षक है- 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन ।' कवि ने इस खण्ड में माटी के उद्भव की नहीं अपितु विकास-कथा-यात्रा का वर्णन किया है। पुण्य कर्मों से उद्भूत श्रेयस्कर की उपलब्धि ही एक मात्र जीवन का अन्तिम लक्ष्य है । प्रत्येक वस्तु में एक लय है, एक क्रम है और इसी भाव की अभिव्यक्ति भी । मेघों से मुक्तोद्भव, तदनन्तर वर्षण । अपक्व कुम्भों पर । कुम्भकार के प्रांगण में । तुरन्त यह समाचार अवनिपति के पास सम्प्रेषित । राजा द्वारा अनुचरों एवं मन्त्रि-परिषद् को उन मुक्ताओं को भरने का आदेश । पर ज्यों ही वह मण्डली मुक्ता - चयन हेतु झुकी, त्यही गगन में गुरु- गम्भीर गर्जना के साथ सुनाई दिया- 'अनर्थ ! अनर्थ !! अनर्थ !!!' । राजा को किसी मन्त्र - शक्ति द्वारा कीलित किया जाना महसूस हुआ। उधर कुम्भकार को यह आभास होना कि 'प्रजा की प्रत्येक वस्तु पर राजा का अधिकार ही न्याय संगत है।' समूची मुक्ता राशि अपने नरेश के चरणों में निश्छल होकर समर्पित कर देना उसके अनुपम त्याग की ओर संकेत करता है । इस खण्ड में कवि ने नारी के प्रति अपना मंगलमय दृष्टिकोण रखा है, यथा : "इनकी आँखें हैं करुणा की कारिका / शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें मिलन - सारी मित्रता / मुफ्त मिलती रहती इनसे । / यही कारण है कि इनका सार्थक नाम है 'नारी' / यानी - / 'न अरि' नारी.. अथवा / ये आरी नहीं हैं / सोनारी ।" (पृ. २०२ ) इसी में कवि ने नारी के अन्य रूपों की भी प्रामाणिक विवेचना की है, जिसमें माँ, महिला, अबला, कुमारी, स्त्री, सुता, दुहिता, मातृ प्रभृति उल्लेख्य हैं। इसके अनन्तर है मेघ - मुक्ता प्रसंग । बिना परिश्रम किए हुए किसी भी लब्ध वस्तु का कोई मूल्य नहीं होता। समूची सृष्टि में जो वस्तु परिश्रम के द्वारा प्राप्त होती है, वही वरेण्य है, उसी का विशेष महत्त्व है । इसीलिए उन्होंने श्रम का आह्वान किया है, यथा : “परिश्रम करो/पसीना बहाओ / बाहुबल मिला है तुम्हें करो पुरुषार्थ सही / पुरुष की पहचान करो सही, / परिश्रम के बिना तुम नवनीत का गोला निगलो भले ही, / कभी पचेगा नहीं वह प्रत्युत, जीवन को खतरा है।” (पृ. २११-२१२) नरेश को अधिक अर्थ-लिप्सा के कारण कष्ट उठाना पड़ा। सच ही कहा है : "अर्थ का स्वार्थ में लगाया जाना
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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