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मूकमाटी-मीमांसा :: 291 सर्वनाश का कारण बनता है ।" अर्थ की सच्ची सार्थकता तो परोपकार में है । सागर, विष, बादल ( पयोधर ), प्रभाकर, स्वभाव का अपरिवर्तनीय होना, पक्षी - कलरव, पाप- पाखण्ड का प्रहार आदि की सुन्दर परिभाषाएँ निरूपति की गई हैं, यथा :
“मैं यथाकार बनना चाहता हूँ / व्यथाकार नहीं । / और मैं तथाकार बनना चाहता हूँ / कथाकार नहीं ।
इस लेखनी की भी यही भावना है - / कृति रहे, संस्कृति रहे
आगामी असीम काल तक / जागृत "जीवित" अजित !” (पृ. २४५)
इन्द्र और बादलों के माध्यम से सुन्दर रूपक प्रस्तुत किया गया है। पाटल पौध का अंकुरण तथा गुलाब के ब्याज से सत्पुरुषों का सुरभि विकीर्ण करना दिग्दर्शित किया गया है । अन्त में कुम्भ की अग्नि परीक्षा से सर्ग का समापन हुआ है, क्योंकि :
“जल और ज्वलनशील अनल में / अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में । / निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर / वेद से अवेद की ओर
बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए / अन्यथा, / वह यात्रा नाम की है यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।" (पृ. २६७ )
खण्ड चार में साधना के आध्यात्मिक शिखरों की ऊँचाइयाँ व्याप्त हैं। इस खण्ड का अभिधान भी यही व्यक्त करता है, यथा-‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख ।' और विगत खण्ड का अवशेष भाग पूर्णता की ओर अग्रसर होता है । कुम्भ की अग्नि परीक्षा हेतु अवा का निर्माण हुआ। लकड़ी के ब्याज से निर्बल प्राणी की अभिव्यंजना । सांगरूप अलंकार के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है कि तपस्या के उपरान्त ही सफलता की उपलब्धि होती है, यथा :
"मैं इस बात को मानती हूँ कि / अग्नि परीक्षा के बिना आज तक किसी को भी मुक्ति मिली नहीं, / न ही भविष्य में मिलेगी ।" (पृ. २७५)
इस प्रकार दोष भस्म होकर समाप्त हो जाता है और अवशिष्ट सात्त्विक तत्त्व मात्र ही रह जाता है, तभी वह बहुमूल्य बन पाता है । सच है - 'इष्ट है अलम् अत: अनमोल । साधना ही जीवन का मोल ।' दर्शन को परिभाषित करते हुए कवि कहता है :
"दर्शन का स्रोत मस्तक है, / स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है । / दर्शन के बिना अध्यात्म- जीवन
चल सकता है, चलता ही है / पर, हाँ ! / बिना अध्यात्म, दर्शन का दर्शन नहीं । लहरों के बिना सरवर वह / रह सकता है, रहता ही है / पर हाँ !
बिना सरवर लहर नहीं । / अध्यात्म स्वाधीन नयन है / दर्शन पराधीन उपनयन
दर्शन में दर्श नहीं शुद्धतत्त्व का / दर्शन के आस-पास ही घूमती है
तथता और वितथता / यानी, / कभी सत्य - रूप, कभी असत्य रूप
होता है दर्शन,जबकि/अध्यात्म सदा सत्य चिद्रूप हो / भास्वत होता है।” (पृ.२८८)
इस खण्ड में कवि आगे कुम्भ के माध्यम से बड़े ही सुन्दर विचार अभिव्यक्त करता है। इनमें जैन दर्शन की