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ཉེཝེགླེ་ཙེརྩེ རྩེ རྩེ
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यह खण्ड सूक्तियों और कहावतों का तो सचमुच कोश ही प्रतीत होता है। पुष्टि में कतिपय पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं : (१) " सन्तान की अवनति में / निग्रह का हाथ उठता है माँ का / और
सन्तान की उन्नति में / अनुग्रह का माथ उठता है माँ का ।" (पृ. १४८) " जीवन को मत रण बनाओ / प्रकृति माँ का व्रण सुखाओ !" (पृ. १४९) " सदय बनो ! / अदय पर दया करो / अभय बनो !” (पृ. १४९)
“जीवन-जगत् क्या ?/ आशय समझो, आशा जीतो ! / आशा ही को पाशा समझो ।” (पृ. १५० ) "क्या करुणा की पालड़ी भी हलकी पड़ी ? / इतनी बाल की खाल तो मत निकालोकहती - कहती करुणा रो पड़ी !" (पृ. १५२ )
"दोनों का मन द्रवीभूत होता है/शिष्य शरण लेकर/ गुरु शरण देकर ।” (पृ. १५४) " नहर खेत में जाती है / दाह को मिटाकर / सूख पाती है, और / नदी सागर को जाती है राह को मिटाकर / सुख पाती है ।" (पृ. १५५-१५६)
(८) " महासत्ता माँ के / गोल-गोल कपोल-तल पर / पुलकित होता है यह वात्सल्य । करुणा-सम वात्सल्य भी / द्वैत-भोजी तो होता है / पर, ममता समेत मौजी होता है, / इसमें बाहरी आदान-प्रदान की प्रमुखता रहती है, / भीतरी उपादान गौण होता है
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मूकमाटी-मीमांसा :: 289
निःसन्देह कह सकते हैं - /विदेह बनना हो तो
स्वर की देह को स्वीकारता देनी होगी / हे देहिन् ! हे शिल्पिन् !” (पृ. १४३)
आगे कवि संगीत और प्रीति को परिभाषित करते हुए कहता है :
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"संगीत उसे मानता हूँ / जो संगातीत होता है / और
प्रीति उसे मानता हूँ / जो अंगातीत होती है
मेरा संगी संगीत है / सप्त-स्वरों से अतीत!" (पृ. १४४-१४५)
यही कारण है, इसमें / अद्वैत मौन होता है।" (पृ. १५७ )
(९) "सृ धातु गति के अर्थ में आती है, / सं यानी समीचीन / सार यानी सरकना " जो सम्यक् सरकता है/ वह संसार कहलाता है।" (पृ. १६१)
(१०) “और सुनो,/यह एक साधारण-सी बात है कि/चक्करदार पथ ही, आखिर/गगन चूमता अगम्य पर्वत-शिखर तक / पथिक को पहुँचाता है / बाधा-बिन बेशक !" (पृ. १६२ )
(११) " मान - घमण्ड से अछूती माटी / पिण्ड से पिण्ड छुड़ाती हुई / कुम्भ के रूप में ढलती है
कुम्भाकार धरती है / धृति के साथ धरती के ऊपर उठ रही है।” (पृ. १६४)
(१२) "भोग पड़े हैं यहीं / भोगी चला गया, / योग पड़े हैं यहीं / योगी चला गया, / कौन किसके लिए
धन जीवन के लिए ?/ या जीवन धन के लिए / मूल्य किसका / तन का या वेतन का,
जड़ का या चेतन का ?" (पृ. १८० )
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'उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य-युक्तं सत् ' / सन्तों से यह सूत्र मिला है / .... व्यावहारिक भाषा में सूत्र का भावानुवाद प्रस्तुत है : / आना, जाना, लगा हुआ है / आना यानी जनन - उत्पाद है जाना यानी मरण - व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर - ध्रौव्य है / और है यानी चिर - सत् / यही सत्य है यही तथ्य !” (पृ. १८४ - १८५)