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288 :: मूकमाटी-मीमांसा
“हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है/और सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि जिसके अवलोकन से/सुख का समुद्भव-सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम
सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड"!" (पृ. १११) पुनश्च, शिल्पी माटी को रौंदता हुआ मानों इस भाव से अभिभूत हो उठता है :
"समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपलि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ॥" इसी क्रम में सागर-सरिता, प्रकृति-पुरुष की परिभाषाओं का सुन्दर एवं समीचीन उल्लेख उपलब्ध होता है। समर्पित माटी की यहाँ एक उपयुक्त झाँकी देखिए :
"और सुनो !/ओर-छोर कहाँ उस सत्ता का ?/तीर-तट कहाँ गुरुमत्ता का ? जो कुछ है प्रस्तुत है/अपार राशि की एक कणिका बिन्दु की जलांजलि सिन्धु को/वह भी सिन्धु में रह कर ही। यूँ कहती-कहती/मुदिता माटी की मृदुता
मौन का घूघट मुख पर लेती !" (पृ. १२९) भिन्न-भिन्न प्रकरणों और सन्दर्भो के बीच नव रसों की सरसता दृष्टिगोचर होती है । शब्द ब्रह्म की जैसी उपासना इस कवि ने की है, अन्यत्र आज दुर्लभ है, यथा :
"परन्तु/जिसे रूप की प्यास नहीं है,
अरूप की आस लगी हो/उसे क्या प्रयोजन जड़ शृंगारों से !" (पृ. १३९) इसी प्रकार :
“स्वीकार करो या न करो/यह तथ्य है कि, हर प्राणी सुख का प्यासा है/परन्तु,/रागी का लक्ष्य-बिन्दु अर्थ रहा है
और/त्यागी-विरागी का परमार्थ !" (पृ. १४१) एक अन्य उदाहरण द्रष्टव्य है :
"किसलय ये किसलिए/किस लय में गीत गाते हैं ? किस वलय में से आ/किस वलय में क्रीत जाते हैं ?
और/अन्त-अन्त में श्वास इनके /किस लय में रीत जाते हैं ?" (पृ.१४१-१४२) परम सत्ता में तद्रूप हो जाना ही चिरन्तन सुख है । कवि इसी भाव को इस प्रकार व्यक्त करता है :
"स्वर संगीत का प्राण है/संगीत सुख की रीढ़ है/और सुख पाना ही सबका ध्येय/इस विषय में सन्देह को गेह कहाँ ?