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“अति के बिना / इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं और / इति के बिना / अथ का दर्शन असम्भव !
अर्थ यह हुआ कि / पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है और/ पीड़ा की इति ही / सुख का अथ है ।" (पृ. ३३)
मूकमाटी-मीमांसा :: 287
रस्सी - बालटी, मछली और सागर ( जीवात्मा परमात्मा), शिल्पी द्वारा करुणा का उद्रेक, युगों का वर्णन, विषय-वासना बन्धन का मूल है, और यही प्रथम आर्य सत्य है । किन्तु यह सब बिना गुरु कृपा प्राप्य नहीं । अन्ततोगत्वा 'दयाविसुद्ध धम्मो' की ध्वनि का अनुगुंजन और उसी में समाधि सुख की उपलब्धि । इस प्रकार प्रथम खण्ड का शीर्षक 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' सार्थक सिद्ध हुआ ।
द्वितीय खण्ड का शीर्षक है- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं ।' निःसन्देह यह खण्ड हमें माटी की भावी यात्रा की ओर ले जाता है । कष्टसहन और विनम्रता का भाव ही लक्ष्य तक पहुँचाता है।
शिल्पी द्वारा माटी के जीवन में प्राण-प्रतिष्ठा, अ-रसा को स-रसा बनाने का उपक्रम, रावण नाम की सार्थकता, पश्चिमी एवं पूर्वी सभ्यता के वर्णन में भारतीय संस्कृति की महत्ता का प्रतिपादन अवलोकनीय है, यथा : “महामना जिस ओर/अभिनिष्क्रमण कर गये / सब कुछ तज कर, वन गये नग्न, अपने में मग्न बन गये / उसी ओर / उन्हीं की अनुक्रम - निर्देशिका भारतीय संस्कृति है / सुख-शान्ति की प्रवेशिका है। " (पृ. १०२-१०३)
शूल और फूल के गुणों का समन्वय जीवन के लिए आवश्यक है । क्षमा-वाणी की अनुगूँज । खण्डगत शीर्षक की सार्थकता के निमित्त स्वयं कवि का कथन द्रष्टव्य है :
“बोध का फूल जब / ढलता - बदलता, जिसमें / वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है // बोध में आकुलता पलती है
शोध में निराकुलता फलती है, / फूल से नहीं, फल से
तृप्ति का अनुभव होता है, / फूल का रक्षण हो / और फल का भक्षण हो;/ हाँ ! हाँ !! / फूल में भले ही गन्ध हो पर, रस कहाँ उसमें !/ फल तो रस से भरा होता ही है, साथ-साथ / सुरभि से सुरभित भी!" (पृ. १०७ )
अनन्तर मोक्ष की व्याख्या द्रष्टव्य है :
"मोह क्या बला है / और / मोक्ष क्या कला है ?
इन की लक्षणा मिले, व्याख्या नहीं, / लक्षणा से ही दक्षिणा मिलती है ।
... अपने को छोड़कर / पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही
मोह का परिणाम है / और / सब को छोड़कर
अपने आप में भावित होना ही / मोक्ष का धाम है । " (पृ. १०९ - ११० )
यह मोक्ष साहित्य के माध्यम से प्राप्य है। तभी तो कवि ने साहित्य की सुन्दर अभिव्यंजना इस प्रकार से प्रस्तुत
की है :