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286 :: मूकमाटी-मीमांसा
ही सीमित रहता है ।" जबकि एम. डिक्सन की 'इंग्लिश ईपिक एण्ड हीरोइक पोयट्री' में उल्लिखित अन्य समालोचकों लार्ड केम्स के अनुसार : “वीरतापूर्ण कार्यों का उदात्त शैली में वर्णन ही महाकाव्य है ।" प्रसिद्ध फ्रेंच विद्वान् ल वस्सु - " प्राचीन महत्त्वपूर्ण घटनाओं की छन्दोबद्ध रचना को महाकाव्य कहते हैं।" जबकि हाब्स के मतानुसार - "वीरतापूर्ण प्रकथनात्मक कविता ही महाकाव्य है ।"
पाश्चात्य समीक्षकों ने भी महाकाव्य के दो भेद स्वीकार किए हैं :
(१) विकसनशील महाकाव्य (ईपिक ऑफ ग्रोथ ), (२) कलात्मक महाकाव्य ( ईपिक ऑफ आर्ट) इन्हीं दो भेदों को प्रकारान्तर से प्रामाणिक (ऑथेन्टिक) और साहित्यिक (लिटरेरी) महाकाव्य कहा गया है।
विकसनशील महाकाव्य साधारणतया एक व्यक्ति की रचना न होकर अनेक व्यक्तियों की रचनाओं का सुसम्बद्ध साहित्यिक रूप होता है। 'द एपिक' में एल. एबरक्रॉम्बी के अनुसार : "कभी-कभी ऐसे महाकाव्य में एक ही लेखक जनता में प्रचलित विविध कथाओं को एक सूत्र में गूँथकर उन्हें सुन्दर काव्योचित रूप प्रदान करता है। विकसनशील महाकाव्य की रचना मुख्यतया सुनने-सुनाने के लिए होती है।" यह वास्तव में श्रव्य काव्य माना जाता है । इसमें वीर पुरुषों की वीर गाथाओं का वर्णन स्वाभाविक सीधी-सादी शैली में होता है। होमर के 'इलियड' एवं 'ओडिसी' जैसे महाकाव्यों को विकसनशील महाकाव्य कहा जाता है। संस्कृत के 'महाभारत' और 'रामायण' की गणना भी ऐसे ही महाकाव्यों में की जाती है ।
कलात्मक महाकाव्य व्यक्ति विशेष की साहित्यिक रचना होती है। इसमें स्वाभाविकता के स्थान पर कृत्रिमता रहती है। मुख्यतया पढ़ने के लिए ही इसकी रचना होती है, इसीलिए इसे हम श्रव्य काव्य न कहकर 'पाठ्य काव्य' कह सकते हैं। इसकी रचना जन-साधारण के लिए नहीं अपितु विद्वानों के लिए होती है । काव्य के निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर इसका निर्माण होता है । इसमें काव्य के कलापक्ष की प्रधानता रहती है। इसमें कवि का ध्यान मुख्यतया भाषाशैली की सुन्दरता की ओर रहता है और इसीलिए इसमें काव्य कला का उत्कृष्ट, निखरा हुआ रूप पाया जाता है । वर्जिल के ‘इलियड' और मिल्टन के 'पैराडाइज लॉस्ट' जैसी रचनाओं को 'कलात्मक महाकाव्य' माना जाता है। कालिदास के 'रघुवंश' तथा 'कुमार सम्भव' जैसे महाकाव्यों को हम इसी श्रेणी में स्थान देते हैं ।
उपर्युक्त विश्लेषण और विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि महाकाव्यों की परिभाषाएँ एवं लक्षण देश-काल एवं वातावरण को दृष्टिगत रखते हुए परिवर्तनीय हैं। यही प्रकृति का भी नियम है। समूचा संसार परिवर्तनशील है और यह परिवर्तन ही क्रमश: नवीनता का उत्स है। जो परिभाषाएँ एवं लक्षण ऊपर वर्णित किए गए, वे तत्कालीन महाकाव्यों को दृष्टि में रखकर ही निर्धारित किए गए प्रतीत होते हैं। अस्तु, यह आवश्यक नहीं कि किसी महाकाव्य में सभी निर्दिष्ट लक्षण दृष्टिगोचर हों। पर हाँ, यह निर्विवाद सत्य है कि उक्त लक्षणों में से अधिकाधिक लक्षणों अथवा कुछ प्रमुख लक्षणों के होने पर ही कोई विशिष्ट कृति महाकाव्य की संज्ञा से अभिहित की जा सकती है।
'मूकमाटी' का कथानक इस प्रकार है - प्रकृति के सुरम्य वातावरण में सरिता तट की माटी अपनी माँ धरती के प्रति करुणाक्रन्दन करती है । पद दलिता होने का उसे क्षोभ है । वर्णसंकरी दृष्टि से मुक्ति पाना ही उसका एकमेव उद्देश्य है । अस्तित्व का कभी नाश नहीं होता है, रूपान्तरण सम्भव है । लघुत्व से ही महत्त्व मिलता है । आस्था के बिना कोई मार्ग नहीं मिलता । प्रतिकूलता व्यवधान नहीं, यदि उसे अपने अनुकूल बना लिया जाए। उत्तर- प्रति उत्तर । उपादानों एवं माध्यमों का जीवन में महत्त्व है । अस्तु, इनका तिरस्कार कर उनका उपकार मानना चाहिए। कुशल शिल्पी का संस्पर्श पाकर ही सामान्य मृदा अनमोल मंगल घट के रूप में परिवर्तित हो आत्म-स्वरूप का लाभ प्राप्त करती है और शीतल जल प्रदान कर दूसरों की तृषा शान्त करती है । अपने को मिटाकर दूसरों को सुख देना ही मोक्ष है । कवि के शब्दों में :