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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 285 (एपिक) को प्रमुख स्थान दिया गया है। भाव प्रधान काव्यों में कवि दृष्टि अन्तर्मुखी रहती है जबकि विषयप्रधान काव्यों वह बहिर्मुखी बन जाती है । उपर्युक्त काव्य भेद विभाजन में पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि मनोवैज्ञानिक अधिक है । डॉ. गोविन्द राम शर्मा (हिन्दी के आधुनिक महाकाव्य, पृ. २७ ) के अनुसार निष्कर्षतः कहा जा सकता है : " वस्तुतः कवि संसार में अपने आपको और अपने आप में संसार को देखता है । वह संसार के सुख-दु:ख, हर्ष - शोक आदि को अपनाने की योग्यता रखता है और उसकी निजी अनुभूतियाँ संसार के दूसरे व्यक्तियों की अनुभूतियों से सर्वथा भिन्न भी नहीं होतीं । विषयप्रधान काव्य में भी बाह्य वस्तुओं के वर्णन पर कवि के व्यक्तित्व की छाप बनी रहती है । भावप्रधान काव्य में भी safa की निजी अनुभूति संसार की अनुभूति से मिश्रित रहती है । यही कारण है कि तुलसी के रामचरितमानस जैसे विषयप्रधान काव्य में पाठक समाज के हृदय के साथ ही तुलसी के भक्ति-प्रवण हृदय को भी टटोलता है और उसके 'विनय पत्रिका' जैसे भावप्रधान नीतिकाव्य में पाठक कवि की अनुभूतियों में अपनी अनुभूतियों का प्रतिबिम्ब भी देखता है ।" संस्कृत काव्य के क्षेत्र में आचार्य विश्वनाथ की महाकाव्यीन परिभाषा ही विश्रुत हुई । उनके 'साहित्य दर्पण' (परि. ६ / ११५ - १२५ ) के अनुसार : "महाकाव्य की कथा सर्गों में विभक्त होना चाहिए। इसका नायक देवता अथवा धीरोदात्त गुणों से युक्त कोई उच्च कुलोत्पन्न क्षत्रिय होना चाहिए। एक ही वंश में उत्पन्न अनेक राजा भी इसके नायक हो सकते हैं । इसमें शृंगार, वीर और शान्त रूप इन तीन रसों में से कोई एक रस प्रधान होना चाहिए और अन्य रस इसके सहायक होना चाहिए। इसमें नाटक की सारी सन्धियाँ (मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श, उपसंहृति- निर्वहण) होना अपेक्षित है। आरम्भ महाकाव्य का कथानक ऐतिहासिक होता है, यदि ऐतिहासिक न हो तो किसी सज्जन व्यक्ति से सम्बन्ध रखने वाला होना चाहिए । इसमें चार वर्गों (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष) में से कोई एक फलरूप में होना चाहिए। इसके नमस्कार, आशीर्वचन अथवा मुख्य कथा की ओर संकेत के रूप में मंगलाचरण विद्यमान रहता है । इसमें कहीं-कहीं दुष्टों की निन्दा और सज्जनों की प्रशंसा होती है। इसके सर्गों की संख्या आठ से अधिक होना चाहिए और इन सर्गों का आकार बहुत छोटा अथवा बहुत बड़ा भी नहीं होना चाहिए । प्रायः प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग और सर्गान्त में छन्द - परिवर्तन उचित माना जाता है। एक सर्ग में विभिन्न छन्दों का वर्णन भी हो सकता है । सर्गान्त में भावी कथा की सूचना अवश्य होना चाहिए । इसमें सन्ध्या, सूर्य, चन्द्र, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार, दिन, प्रात: काल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, समुद्र, संयोग-वियोग, मुनि, स्वर्ग, नगर, युद्ध, यज्ञ, विवाह, मन्त्रणा, पुत्रोत्पत्ति आदि का यथावसर सांगोपांग वर्णन होना चाहिए । महाकाव्यों का नाम कवि, कथावस्तु, नायक अथवा किसी अन्य व्यक्ति के नाम के आधार पर होना चाहिए और सर्गों के नाम सम्बन्धित कथा के आधार पर होना चाहिए ।" पाश्चात्य विद्वानों ने भी महाकाव्य विषयक अपनी-अपनी धारणाओं को व्यक्त किया है। आइए, उन पर भी एक विहंगम दृष्टि डालते चलें । स्ट्रिय की 'अरिस्टोटिल पोइटिक्स' के अनुसार : “जहाँ तक शब्दों के माध्यम से महान् चरित्रों और उनके कार्यों के अनुकरण का सम्बन्ध है, महाकाव्य और त्रासदी में समानता पाई जाती है, किन्तु कुछ बातों में महाकाव्य त्रासदी से भिन्न होता है। महाकाव्य में आदि से लेकर अन्त तक एक ही छन्द का प्रयोग होता है। वह प्रकथनात्मक होता है और उसके कार्य-व्यापार में समय की कोई सीमा नहीं रहती, जबकि त्रासदी का कार्य-व्यापार लगभग २४ घण्टे तक
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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