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________________ 'मूकमाटी' : एक कलात्मक महाकाव्य डॉ. रामस्वरूप खरे साहित्य के मूल में आत्माभिव्यंजन की अभीप्सा और चारुता के प्रति असीम अनुराग-ये दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ प्रधान रूप से कार्य सम्पादित करती हैं। सौन्दर्य का अनन्य उपासक सामाजिक सहृदय प्राणी आत्माभिव्यक्ति के साधन में भी सौन्दर्याभिव्यक्ति को सर्वाधिक स्वीकार करता है । इस प्रकार अन्त:करण को प्रभूत मात्रा में प्रफुल्लित करने के लिए आनन्दोपलब्धि हेतु प्रेरक एवं मार्मिक भाषा में आत्मा की अभिव्यक्ति ‘साहित्य' नाम से अभिहित की जाती है। निःसन्देह साहित्य मानव-मस्तिष्क की सर्वोत्तम उपलब्धि है। साहित्य को चाहे 'ज्ञान राशि का संचित कोष' कहा जाय या 'मानव जीवन की व्याख्या' माना जाय अथवा ‘भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति स्वीकार करें, इसमें कोई दो मत नहीं कि साहित्य का जीवन से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । साहित्य जीवन की सशक्त एवं अनुप्रेरक शक्ति तो है ही, साथ ही साथ उसमें जीवन की विभिन्न अनुभूतियों का समावेश भी रहता है । साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ उसकी जाति एवं समाज के विशाल जीवन का प्रतिबिम्ब भी विद्यमान रहता है। साहित्य, समाज और जीवन-ये तीन बिन्दु एक श्रेष्ठ साहित्यकार का संस्पर्श पाकर कला का सुन्दर रूप धारण कर लेते हैं। साहित्य-सर्जना में साहित्यकार का बहुत बड़ा हाथ होता है। 'साहित्यकार' इस दृष्टि से केवल एक कलाकार ही नहीं होता, वरन् वह समाज-नियन्ता तथा उसका समुन्नायक भी होता है । उसकी कृतियाँ समाज को प्रेरणा प्रदान करने की क्षमता रखती हैं, उसकी प्रगति में सहयोग देती हैं और उसकी परिस्थितियों को बदलने तथा सुधारने में भी हाथ बँटाती हैं। साहित्यकार की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अपने तथा समाज के अन्य व्यक्तियों के अन्यथा नश्वर भावों को कविता, नाटक, उपन्यास, निबन्ध आदि विविध साहित्यिक कृतियों के रूप में अमर बनाने की क्षमता रखता है। वह समाज के मूक भावों को वाणी प्रदान करता है, उसके अस्थिर भावों को स्थाई बना देता है । साहित्यकारों की विविध रचनाओं की समष्टि ही साहित्य के रूप में हमारे सम्मुख आती है । अस्तु, इस प्रकार साहित्य को हम मानव समाज का सर्वांग सम्पन्न शरीर' स्वीकार करेंगे और निश्चित ही काव्य को उसकी 'आत्मा' मानना अतिशयोक्ति नहीं मानी जाएगी। साहित्य के विविध एवं अन्यान्य रूपों की अपेक्षा काव्य में हृदय को प्रभावित करने की सर्वाधिक क्षमता पाई जाती है। जिन भावों को नाटक, कहानी, निबन्ध आदि माध्यमों से प्रकट करने पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, वे भी काव्य रूप में अत्यधिक मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी बन जाते हैं। काव्य, जड़ को चेतन, असुन्दर को सुन्दर, कठोर को आर्द्र, क्षुद्र को महान्, अस्पृश्य को स्पृश्य, अरसिक को रसज्ञ एवं मूढ़ को पण्डित बना देने की क्षमता रखता है। काव्य हृदय-परिवर्तन के साथ ही साथ व्यक्ति में प्रेम, सहानुभूति, सौहार्द्र, चेतना प्रभृति मानवीय गुणों को प्रादुर्भूत कर सकता है । यही कारण है कि काव्य को साहित्य में मूर्धन्य स्थान प्राप्त है । इस सन्दर्भ में कतिपय भारतीय एवं पाश्चात्य मनीषियों की धारणाओं को जानना विषय के प्रतिपादन के निमित्त अधिक उपादेय रहेगा। भारतीय आचार्यों में भामह ने अपने 'काव्यालंकार' में 'सहित शब्द और अर्थ' को काव्य स्वीकार किया है तो सुप्रसिद्ध आचार्य दण्डी ने 'काव्यादर्श' में काव्य के शब्दार्थ रूपी शरीर को अलंकृत करने वाले आभरणों को महत्ता प्रदान की है। जबकि आचार्य आनन्दवर्धन ने 'ध्वन्यालोक' में 'ध्वनि को ही काव्य की आत्मा' कहा है । आचार्य वामन ने 'काव्यालंकार सूत्र-वृत्ति' में रीति को काव्य माना तो कुन्तक ने 'वक्रोक्तिजीवित' में वक्रोक्ति को, मम्मट ने 'काव्यप्रकाश' में दोष रहित गुणवाली, अलंकार युक्त तथा कभी-कभी अलंकार सहित शब्दावली रचना को, विश्वनाथ ने 'साहित्य दर्पण' में 'रसात्मक वाक्य' को तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने 'रसगंगाधर' में 'रमणीय अर्थ के प्रतिपादक'
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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