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________________ 282 :: मूकमाटी-मीमांसा पात्र भी अपात्र की कोटि में आता है/फिर, अपात्र की पूजा में पाप नहीं लगता।" (पृ. ३८२) इसीलिए: 0 "पतितों को पावन समझ, सम्मान के साथ/उच्च सिंहासन पर बिठाया जा रहा है । ___और/पाप को खण्डित करने वालों को/पाखण्डी-छली कहा जा रहा है।” (पृ.४१०) 0 “किन्तु आज!/काँच-कचरे को ही सम्मान मिल रहा है।" (पृ. ४१२) जिनकी झोली खुद आँसुओं से भरी हो, वे दूसरों के आँसू कैसे पोंछ सकते हैं : "अपनी प्यास बुझाये बिना/औरों को जल पिलाने का संकल्प मात्र कल्पना है,/मात्र जल्पना है।" (पृ. २९३) वस्तुत: इस पंक्ति में इतनी व्यंजना है कि इसके अनेक ध्वन्यर्थ निकलते हैं। किसी की मदद करने के लिए मदद करने वाले को समर्थ होना होगा, अन्यथा मदद करने की बात केवल दम्भ है । समाज सेवा वही कर सकता है, जो स्वयं सन्तुष्ट हो, जिसे सेवा की आवश्यकता न हो । अथवा, दूसरे के ज्ञान की प्यास वही बुझा सकता है, जो स्वयं ज्ञानी हो। व्यंजना शक्ति-सम्पन्न यह पंक्ति इतनी सशक्त और मार्मिक है कि बार-बार पढ़ने को प्रेरित करती है। साधकों के लिए नारी सिद्धिमार्ग की बाधा रही है, इसीलिए प्रायः धर्माचार्यों ने नारी के प्रति अनादर के भाव व्यक्त किए हैं। परन्तु इस काव्य में आचार्यश्री ने नारी के पर्यायवाची शब्दों के माध्यम से उसके प्रति अपना आदरभाव व्यक्त किया है : "...पुरुष को रास्ता बताती है/सही-सही गन्तव्य का महिला कहलाती वह !" (पृ. २०२) । ० "संग्रह-वृत्ति और अपव्यय-रोग से/पुरुष को बचाती है सदा, अर्जित-अर्थ का समुचित वितरण करके ।” (पृ. २०४) स्त्री अपने साथ पति के हित का भी साधन करती है : “अपना हित स्वयं ही कर लेती है,/पतित से पतित पति का जीवन भी हित सहित होता है, जिससे/वह दुहिता कहलाती है।" (पृ. २०५) जो कुपथगामिनी स्त्री दिखाई देती है, उसके पीछे पुरुष ही कारणभूत है : “प्रायः पुरुषों से बाध्य हो कर ही/कुपथ पर चलना पड़ता है स्त्रियों को परन्तु,/कुपथ-सुपथ की परख करने में/प्रतिष्ठा पाई है स्त्री-समाज ने।" (पृ. २०१-२०२) त्यागप्रधान और सुख-शान्ति की पोषिका भारतीय संस्कृति की सुरक्षा का भाव रखते हुए यह कृति समाज व राजनीतिगत कुरीतियों का निर्देश कर, मात्र उनसे परिचित ही नहीं कराती अपितु उनके निराकरण का सन्देश भी देती है। कवि ने युगचेतना को आत्मसात् कर उसे वाणी दी है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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