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मूकमाटी-मीमांसा :: 277
अनुभव कर रहा है, जिसमें शब्द को अर्थ मिला है और अर्थ को परमार्थ; जिसमें नूतन-शोध-प्रणाली को आलोचन के मिष, लोचन दिये हैं; जिसने सृजन के पूर्व ही हिन्दी जगत् को अपनी आभा से प्रभावित-भावित किया है,''... ('मानस तरंग', पृ. XXIV)
यों सारा काव्य कवि के 'मानस-तरंग' का परिणाम है। 'मानस-तरंग' के रूप में लिखित गद्य पंक्तियाँ ज्ञान को ललित रूप में प्रस्तुत करती हैं और पूरा काव्य भी इस तरह मानस-तरंगों से युक्त है । इन तरंगों की आभा अलगअलग रूप में रुक-रुक कर देखनी होगी। इनका मनन बहुत आपश्यक है । ज्ञान यदि मस्तिष्क से हृदय में उतर आए तो उसे ललित होना चाहिए। जहाँ दिमागी कसरत अधिक हो, उसे ललित कैसे कहें ? 'मानस-तरंग' जितना (गद्य रूप में भी) ललित है, उस रूप में काव्य ललित नहीं हो सका है। इस पर भी काव्य प्रभावित करता है । जैन दर्शन में आस्था न रखनेवाले पाठक भी इसे पढ़ेंगे तो उन्हें जीवन के रहस्य को समझने में सहायता मिलेगी।
लक्ष्मीचन्द्रजी ने 'प्रस्तवन' लिखा है। मैंने जो कुछ लिखा है, वह एक सामान्य पाठक के नाते लिखा है । इसे महाकाव्य कहकर इसके महत्त्व को कम नहीं करना है और न ही इसे लौकिक काव्यों की श्रेणी में रखना है। काव्य के विचार उदात्त हैं और वे सबको अपनी-अपनी पहचान बढ़ाने में सहायक हैं।
पेष्ठ१४३ स्पर संगीत का प्राण है --- हे देरिन्। हे शिल्पिन् ।"