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276 :: मूकमाटी-मीमांसा सोचना है।
'अखरावट पढ़ें, 'बावन आखरी' पढ़ें या अलीफ नामा' पढ़ें - ये सब ऐसे काव्य हैं जिनमें प्रत्येक अक्षर में आध्यात्मिक बोध की भावना है। हम सभी से कुछ न कुछ सीखते हैं। उसी तरह खुली आँख से प्रकृति का निरीक्षण करें तो सब 'लाल' की 'लाली' है और आप भी देखते-देखते (बोध हो जाए तो) 'लाल' हो जाएँगे। कबीर तथा सूफी कवियों ने इस प्रकार के काव्य लिखे हैं और इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनको 'ज्ञानाश्रयी शाखा' के कवि कहा है। ये सब ज्ञानमार्गी हैं। 'मूकमाटी' को इस रूप में ज्ञानमार्गी कहना ठीक होगा।
'मूकमाटी' देखने में आधुनिक प्रतीत होगा । काव्य शैली आधुनिक है । छन्दोबद्ध रचना नहीं, सर्गबद्ध भी नहीं । पात्रों के अनुसार शीर्षक नहीं। संवादों में पात्रों को अलगाया नहीं गया । सब कुछ एक चलते प्रवाह में है। प्रतीकों का मानवीकरण काव्य में है, अन्यथा उनमें संवाद कैसे होता ? किन्तु मानवीकरण बौद्धिक स्तर का है । बुद्धि स्वीकार करने के उपरान्त ही उसे हृदय में प्रवेश मिल सकता है और आदि से अन्त तक के क्रम को हृदय में उतारना सचमुच बौद्धिक परिश्रम का काम है। इसीलिए इसे प्रेषणीय कहने में संकोच है।
___ कवि का भाषा पर अच्छा अधिकार है और शब्दों के अर्थ की मीमांसा काव्य में रंगत लाती है । नाम (शब्द) रूप/लक्षण की संगति में भाषा की अर्थवत्ता को नई ज्योति मिलती है। पर्यायी अर्थों के बजाय मूल अर्थ का विश्लेषण अधिक किया गया है। अक्षर विपर्यय/शब्दान्वय के आधार पर अर्थों की मीमांसा की गई है । कुछ उदाहरण देखें :
० “लाभ शब्द ही स्वयं/विलोम रूप से कह रहा है
ला''भ'भ' "ला।” (पृ. ८७) ० "कम बलवाले ही/कम्बलवाले होते हैं और/काम के दास होते हैं।
हम बलवाले हैं/राम के दास होते हैं और/राम के पास सोते हैं। कम्बल का सम्बल/आवश्यक नहीं हमें/सस्ती सूती-चादर का ही आदर करते हम !/दूसरी बात यह है कि/गरम चरमवाले ही शीत-धरम से/भय-भीत होते हैं और/नीत-करम से/विपरीत होते हैं। मेरी प्रकृति शीत-शोला है/और/ऋतु की प्रकृति भी शीत-झोला है दोनों में साम्य है/तभी तो अबाधित यह/चल रही अपनी मीत-लीला है।"
(पृ. ९२-९३) ऐसे कई उदाहरण हैं। प्रकृति के उपादानों में मानवीय लक्षण दिखलाए गए हैं और इस तरह मानव-प्रकृति की मीमांसा कवि ने प्रस्तुत की है। इस मीमांसा में जीवन-दर्शन है । दर्शन को काव्य के बाने में प्रस्तुत करने का यह प्रयास अद्भुत है।
दार्शनिक दृष्टि और धार्मिक दृष्टि-यों एक ही होती है किन्तु दर्शन तो सबके लिए खुला है और धर्म के साथ आस्था पक्ष जुड़ा हुआ है । पुस्तक को धार्मिक दृष्टि से पढ़नेवाले आस्था से पढ़ेंगे जबकि दर्शन की दृष्टि से पढ़नेवाले जिज्ञासाओं का समाधान खोजेंगे। इस रूप में देखने पर जैन धर्म को मानने वाले पाठकों में और अन्य धर्म को मानने वाले पाठकों में भेद करना होगा । पुस्तक में जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या-विश्लेषण है। ‘मानस-तरंग' के आरम्भ में लिखा है : “यह वह सृजन है जिसका सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर शृंगार-रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आता है, जिसमें लौकिक अलंकार अलौकिक अलंकारों से अलंकृत हुए हैं; अलंकार अब अलं का