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________________ 272 :: मूकमाटी-मीमांसा कवि अपनी काव्य-कथा मिट्टी से ही प्रारम्भ करता है । यद्यपि माटी निर्जीव है, मगर कवि की माटी यहाँ पर बिलकुल सजीव है । उसे अपने क्षुद्र अस्तित्व का एहसास है, अस्तित्वहीनता का बोध है । अस्तित्व होते हुए भी माटी का अपनी माँ धरती से इस प्रकार कहना : "स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से, 'अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !" (पृ. ४) क्या यह माटी की विनम्रता नहीं? माटी प्रतीक है यहाँ एक सामान्य व्यक्ति की, साधक की। विनम्रता उसका मूलगुण है । आगे की पंक्तियों में कवि ने माटी के माध्यम से ही आज के युग के लगभग समस्त मानवों की पीड़ा को युक्ति-संगत अभिव्यक्ति दी है : "सुख-मुक्ता हूँ/दुःख-युक्ता हूँ/तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ !" (पृ. ४) सचमुच आज का प्रत्येक मानव किसी न किसी कारण से दु:खी और सामान्य व्यक्ति क़दम-क़दम पर तिरस्कृत और उपेक्षित होता रहता है । इसे हम कवि की दूरदृष्टि कहें या युगबोध कहें- पर है सत्य । संसार में माया-मोह से असम्पृक्त रहने वाला एक सन्त-महात्मा दिगम्बर जैन आचार्य विद्यासागरजी को सांसारिक युगबोध का समीचीन बोध है। कवि तुरन्त ही अपने इस काव्य के सृजन का उद्देश्य भी प्रकट करवा देता है माटी से : "इस पर्याय की/इति कब होगी ?/इस काया की च्युति कब होगी ?/बता दो, माँ इसे !" (पृ. ५) कवि मुक्ति की कामना से इस शरीर से छुटकारा पाना चाहता है । मुक्ति प्राप्त करना, ईश्वरत्व को प्राप्त करना इतना आसान नहीं होता । इसके लिए कठिन साधना, तपश्चर्या करनी पड़ती है, तब जाकर वह पद मिलता है। कवि ने इस साधारण मिट्टी को काट-छाँटकर, कंकड़-पत्थर निकालकर, जल मिलाकर, ठोक-पीटकर, चाक पर चढ़ाकर, अवा में तपाकर, अग्नि परीक्षा लेकर की, तब कहीं जाकर उसे दिव्य मंगल कलश तक पहुँचाया है। यह एक परोक्ष रूप से मानव मात्र के लिए संकेत है, सन्देश है कि जब पैरों तले रौंदी जाने वाली क्षुद्रा मिट्टी इतनी ऊँचाई तक पहुँच सकती है, तब मनुष्य क्यों नहीं? साधारण से साधारण मनुष्य भी अपने अहं को तोड़कर ईर्ष्या-द्वेष, छल-कपट छोड़कर, तप-त्याग एवं साधना से आत्मोन्नति कर सकता है, अन्तर की ज्योति जगा सकता है और इसी से उसे परम पद की प्राप्ति भी हो सकती है। प्रत्येक मनुष्य को साधना करनी चाहिए। परन्तु ऐसी साधना करना भी सबके वश की बात नहीं। जो कर ले जाए, वही तर जाए। जब ऐसा दिव्य, लोक मंगल कामना का भाव लिए मूकमाटी' हिन्दी साहित्य गगन में सितारे की भाँति चमकी है तो फिर इसे क्यों नहीं सूर्य-चन्द्र बनाकर इसके प्रकाश को यत्र-तत्र-सर्वत्र फैलाया जाय । 'मूकमाटी' के पात्र ___'मूकमाटी' के पात्रों के बारे में विस्तार से कहने के लिए एक अलग से लेख लिखना पड़ेगा, जिसका यहाँ अवकाश नहीं है। किन्तु संक्षिप्त टिप्पणी किए बगैर काम नहीं चलेगा, क्योंकि 'मूकमाटी' की कथा अपने आप में जितनी सूक्ष्म और अलौकिक-सी है, उतने ही इस कथा के विचित्र पात्र हैं। इन्हीं विचित्र पात्रों के माध्यम से 'मूकमाटी' का तानाबाना बुना गया है । ये पात्र हैं- मत्कुण, भानु, कुमुदिनी, सर्प, चन्द्रमा, सरिता, सागर, माटी, चेतना, बादल, कुम्भकार, शिल्पी, गदहा, कंकर, कूप, रस्सी, गाँठ, रसना, मछली, बालटी, माँ, कुदाली, काँटा (शूल),
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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