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________________ 270 :: मूकमाटी-मीमांसा प्रस्तुत करता है । कबीर की माटी देखिए क्या कहती है : "माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रूँदें मोहि । इक दिन ऐसा आयगा, मैं रदूंगी तोहि ॥" कबीर की माटी तो रौंदने की बात करती है, जिसमें एक प्रकार से बदले की भावना है, लेकिन आचार्य विद्यासागरजी की माटी ऐसे कुसंस्कारों से मुक्त है । वह तो अपने आप श्रम से, तप-त्याग से, साधना-आराधना से ऊँचा उठ कर, मंगल कलश बन कर जन-कल्याण के लिए तत्पर हो जाती है। यही माटी का चरमोत्थान भी है। ___आजकल समाज में पानी को भी आग लग चुकी है, अत: हिंसा और मार-काट के इस युग में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना न जाने कहाँ तिरोहित हो गई है ? चारों तरफ असुरक्षा का वातावरण, बेकारी, भुखमरी, असन्तोष बना हुआ है। ईर्ष्या-द्वेष, छल-कपट की आँधियाँ मनुष्य को बावला बनाए दे रही हैं। मनुष्य, मनुष्यत्व से हट कर पशुवत् बन कर रह गया है। जब समाज तथा राष्ट्र में फूट और हिंसा की आग धू-धू कर जल रही है, ऐसे समय में सत्य, अहिंसा एवं शान्ति का सम्बन्ध लेकर यह कृति आई है। ईर्ष्या-द्वेष को मिटा कर, 'सादा जीवन-उच्च विचार'का उद्देश्य लेकर इसने साधना का बिगुल बजाया है, यह सामान्य बात नहीं है ! सबसे बड़ी विशेषता इस कृति की यही है कि यह सारा सन्देश, उद्दिष्ट, हमें शिक्षा-दीक्षा या उपदेशों के माध्यम से नहीं मिलता और न ही हमें जो कोई भी आज्ञा ही देता है, यह इस कति की कथा में आए पात्रों द्वारा मुखरित होता है अथवा काव्य में व्यंजित होता है, इसीलिए पाठकों को अखरता नहीं और वह ऐसी कृति का स्वागत करता है । वर्तमान अवमूल्यन के समय में मानव-मूल्य को उन्नत दिशा देने रूप इस कृति का उद्देश्य अति समीचीन है । इस समय इसकी उपयुक्तता समादरणीय है। जनसंख्या की बेतहाशा व असन्तुलित वृद्धि के अनुपात में स्रोतों की उतनी वृद्धि नहीं हुई। अभावों की संकुलता मानव-मन व चिन्तन में इस प्रकार घुल-मिल गई है कि उसने आज के व्यक्ति को स्वार्थी, लुटेरा व आत्मकेन्द्रित कर दिया है । कल के लिए संग्रह करने की प्रवृत्ति में विग्रह कर बैठता है, वह भी परायों से नहीं, अपनों से । अपनों को ही बुरी तरह से इंसता है। आज का मनुष्य अब मनुष्य नहीं रहा, इन्सान भी इन्सान नहीं रहा । इसी बात से पीड़ित होकर उर्दू के एक शायर ने इस वैज्ञानिक प्रगति के परिणामस्वरूप इन्सान के ह्रास को कुछ इस प्रकार कहा है : "बहुत कुछ हो रहा है इस तरक्की के ज़माने में मगर यह क्या गज़ब है आदमी इन्साँ नहीं होता।" जिस युग में इन्सान अपनी इन्सानियत खो बैठा हो, मानव अपनी मानवता खो बैठा हो, मनुष्य अपनी मनुष्यता खो बैठा हो, उस युग में जो कृति मनुष्यता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करे, वह स्पृहणीय है और वह कृतिकार वन्दनीय । इसीलिए 'मूकमाटी' का अवतरण औचित्य के धरातल पर खरा उतरता है एवं 'मूकमाटी' का कवि-कर्म श्लाघ्य है। समाज को बहुत कुछ उत्कृष्ट देने के लिए खुद को मिटाना पड़ता है । ऐन्द्रिय सुख का त्याग अथवा उस पर नियन्त्रण आवश्यक है । दूसरों को सुख देने के लिए अपने दैहिक सुखों, सांसारिक सुखों का संवरण तो करना ही पड़ता है । यह महान् कर्म अपने आप में साधना है, तपस्या है । यह सभी लोगों के बस की बात नहीं है । कबीर की भाषा में: “जो घर जारै आपनो चलै हमारे साथ।" उर्दू के भी एक शायर ने कहा है :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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