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नई कविता का प्रथम महाकाव्य :
'मूकमाटी'
प्रो. जीवितराम का. सेतपाल
भारत की सांस्कृतिक धरोहर हैं हमारे ऋषि-मुनि, तपस्वी, सन्त और महात्मा । सन्त-महात्माओं और ऋषि-मुनियों की यहाँ एक लम्बी परम्परा रही है। भारत के धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक जीवन में इस परम्परा का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है ।
सदियों से भारतीय जनमानस को इनकी विचारधारा प्रभावित करती रही है। हमारे ये सन्त महात्मा बड़े ही ज्ञानी, ध्यानी, विचारक एवं समाज के हितकारक रहे हैं । इनके तप त्याग, ज्ञान-ध्यान के आगे विश्व की महान् हस्तियाँ भी अपना सिर झुकाती रही हैं। सिकन्दर ने जब अपने गुरु से पूछा कि वह उनके लिए भारत वर्ष से क्या लाए ? उत्तर में गुरु ने कहा था : "मेरे लिये भारत वर्ष से एक सन्त महात्मा ले आना ।"
सन्त परम्परा में जैन मुनियों का एक विशिष्ट स्थान है। जैन मुनि तप-त्याग, शान्ति, अहिंसा व्रत का पालन तो करते ही थे, साथ-साथ अध्ययनरत भी रहा करते थे । उन्होंने अपने ज्ञान को लिपिबद्ध किया था और अपने विचारों को लिख कर समाज के सामने रखा था । आधुनिक युग भी इससे भिन्न नहीं है । इसके साक्षी • जैन मुनि आचार्य
विद्यासागर और उनकी ‘मूकमाटी' ।
वादों के घेरे से निकल कर छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, अकविता, ठोस कविता, हाशिए की कविता आदि के चक्कर से फिसलकर जब कविता सिर्फ शुद्ध कविता रह गई है, ऐसे समय में साहित्य के क्षेत्र में 'मूकमाटी' का पदार्पण सुखद आश्चर्य है, मनोनुकूल है। आश्चर्य करने के कारण हैं - एक तो आधुनिक काल में काव्य के प्रति लोगों की रुचि दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। मात्र गिने-चुने लोगों की ही कविताएँ छपती हैं अथवा कवि स्वयं पैसा देकर छपवाए। इस व्यापारिक युग में साहित्य ही उपेक्षित हो गया है, फिर कविता का क्या कहना ! लेकिन इसका महत्त्व कम नहीं है ! दूसरा आश्चर्य है यह उत्कृष्ट कृति मुनि के कर कमलों द्वारा सृष्ट है, जो वर्तमान युग के लिए वांछनीय है । आद्योपान्त पढ़ जाने के बाद, 'मूकमाटी' में पिरोई गई सूक्ष्म तरंगों में अवगाहन करने पर यह भावनाओं और विचारों का सागर लगती है। सुधी समीक्षक यदि इस कृति को पूर्वाग्रह रहित होकर पढ़ेंगे तो निश्चय ही आचार्य विद्यासागर के इस महासागर से हीरे-मोती पा जाएँगे। इस कृति का जो कथ्य है, जो उद्देश्य है, वह आज के अशान्त समाज और असन्तुष्ट जीवन के लिए उपयुक्त है ।
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'संकर नहीं : वर्ण-लाभ, ‘शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' तथा ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' - इन चार खण्डों में विभक्त 'मूकमाटी' की सूक्ष्म कथा का ताना-बाना मानों रेशम के धागों से बुना गया है, जो घृत एवं मखमल - सा स्निग्ध व सुकोमल है और जिसकी माटी मूक होते हुए भी मुखर है। इस दलित, उपेक्षित मिट्टी को सामान्य जीवन में कोई महत्त्व नहीं मिलता। इसे तुच्छ मान कर सभी रौंदते हुए चले जाते हैं । हम सब इसी मिट्टी की उपज हैं, फिर भी इस बात को हम भूल जाते हैं। एक कवि याद भी दिलाता है :
"पाँच तत्त्व का पुतला मानव / सूरत न्यारी-न्यारी,
कोई उजला, कोई गोरा / बहुरंगी संसारी,
तू काहे भेद करे ? / माटी, नये-नये रूप !"
'मूकमाटी' का कवि सन्त कबीर की परम्परा को ही आगे बढ़ाते हुए अपनी माटी को अधिक मुखरित रूप से