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268 :: मूकमाटी-मीमांसा
आध्यात्मिक चिन्तन की पराकाष्ठा पर पहुँचकर यह काव्यकृति शान्ति, अहिंसा, समानता का महान् सन्देश देती है, जिन्हें इन विलक्षण शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है :
"विश्व का तामस आ भर जाय / कोई चिन्ता नहीं,
किन्तु, विलोम भाव से/ यानी / तामस सम ंता ं ं!'’(पृ. २८४)
:
यह है आचार्यश्री विद्यासागर के महाकाव्य 'मूकमाटी' पर मेरी एक विनम्र दृष्टि । लेकिन यह कहाँ ले सकती है उसकी थाह ! क्योंकि 'मूकमाटी' की गागर का सागर अथाह है, जिसे इन्हीं चिन्तक की वाणी में कहा जाए तो " अगर सागर की ओर / दृष्टि जाती है, / गुरु-गारव-सा कल्प-काल वाला लगता है सागर; / अगर लहर की ओर दृष्टि जाती है, अल्प-काल वाला लगता है सागर // एक ही वस्तु / अनेक भंगों में भंगायित है अनेक रंगों में रंगायित है, तरंगायित !” (पृ. १४६ )
' और मेरी विनम्र दृष्टि भी शायद यही कुछ देख पाई है !
[‘धर्मयुग' (साप्ताहिक), मुम्बई, महाराष्ट्र, १७ सितम्बर, १९८९]
जब
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कभी धरा पर
धरती के वैभव को ले गया है है !
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