________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 265 महाकाव्य का दूसरा खण्ड है- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं'। इसमें माटी कुम्भ के रूप में सृजनक्रिया से गुजरती है, कच्चा घट बनती है और भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ अनेक आयामों में अंकित होती है। इसमें ही नव रसों को सांकेतिक रूप से नव परिभाषित किया गया है और बताया गया है कि जहाँ उच्चारण मात्र 'शब्द' है, उसका सम्पूर्ण अर्थ समझना ‘बोध' और इस बोध को अनुभूति में, आचरण में उतारना 'शोध' है। शब्दों और रसों से सृजित विचार इसी क्रम में आते हैं :
0 “कम बलवाले ही/कम्बलवाले होते हैं और
काम के दास होते हैं।" (पृ. ९२) 0 "पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा
निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा ।" (पृ. ९३) "बदले का भाव वह दल-दल है/कि जिसमें/बड़े-बड़े बैल ही क्या,
बल-शाली गज-दल तक/बुरी तरह फंस जाते हैं ।" (पृ. ९७) ० "कभी कभी शूल भी/अधिक कोमल होते हैं/..फूल से भी/और
कभी कभी फूल भी/अधिक कठोर होते हैं/..'शूल से भी ।" (पृ. ९९)
० "दम सुख है, सुख का स्रोत/मद दुःख है, सुख की मौत !" (पृ. १०२) अध्यात्म यहाँ भी आत्मा के साथ-साथ चलता है और ऐसी अनुभूतियाँ देता है, जिन्हें सरलता के साथ आज के जीवन से भी जोड़ा जा सकता है। उदाहरण प्रस्तुत हैं :
0 "अपने को छोड़कर/पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही
मोह का परिणाम है/और/सब को छोड़कर अपने आप में भावित होना ही/मोक्ष का धाम है !" (पृ. १०९-११०)
"आस्था के बिना आचरण में/आनन्द आता नहीं, आ सकता नहीं।
फिर,/आस्थावाली सक्रियता ही/निष्ठा कहलाती है।" (पृ. १२०) 0 "गुणी के ऊपर चोट करने पर/गुणों पर प्रभाव पड़ता ही है।" (पृ. १२५)
० "दुःस्वर हो या सुस्वर/सारे स्वर नश्वर हैं।" (पृ. १४३) आध्यात्मिक अनुभूतियों के साथ-साथ इस खण्ड की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता है आधुनिक परिस्थितियों पर शालीन व्यंग्य और जीवन के अशान्तिगत तथा स्वार्थपूर्ण पहलुओं पर तीखे विचार, जिनकी अभिव्यक्ति इन उदाहरणों में होती है :
0 "वीर-रस के सेवन करने से/तुरन्त मानव-खून/खूब उबलने लगता है
काबू में आता नहीं वह/दूसरों को शान्त करना तो दूर, शान्त माहौल ही खौलने लगता है/ज्वालामुखी-सम।"(पृ.१३१) "आन पथ दिखाने वालों को/पथ दिख नहीं रहा है, माँ! कारण विदित ही है-/जिसे पथ दिखाया जा रहा है वह स्वयं पथ पर चलना चाहता नहीं,/औरों को चलाना चाहता है और/इन चालाक, चालकों की संख्या अनगिन है।" (पृ. १५२)