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________________ 264 :: मूकमाटी-मीमांसा शिखर का स्पर्शन/सम्भव नहीं है !" (पृ.१०) 0 "स्वस्थ-प्रौढ़ पुरुष भी क्यों न हो ___ काई-लगे पाषाण पर/पद फिसलता ही है !"(पृ.११) 'मूकमाटी' की निर्माण-कथा के इस खण्ड में हमें जीवन को एक चारित्रिक ऊँचाई देने के लिए कई सूक्तिसन्देश मिलते हैं, जिन्हें आज के सन्दर्भ में सीप के मोती कहा जा सकता है, जैसे : 0 "असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है, बेटा!" (पृ.९) 0 “आस्था के बिना रास्ता नहीं/मूल के बिना चूल नहीं।" (पृ.१०) - "किसी कार्य को सम्पन्न करते समय अनुकूलता की प्रतीक्षा करना/सही पुरुषार्थ नहीं है।" (पृ.१३) ० "दुःख की वेदना में/जब न्यूनता आती है दुःख भी सुख-सा लगता है।" (पृ. १८) अध्यात्म के अथाह सागर में छिपे हुए इन मोतियों को सामने लाने के लिए हमें महाकाव्य के छन्दों की, भावनाओं की एक-एक पंक्ति को मननपूर्वक समझना पड़ता है और अनुभूत करना पड़ता है-इन बानगियों के समान : - "अति के बिना/इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं/और/इति के बिना अथ का दर्शन असम्भव !/अर्थ यह हुआ कि/पीड़ा की अति ही पीड़ा की इति है/और/पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है।" (पृ.३३) 0 “वासना का विलास/मोह है,/दया का विकास/मोक्ष है एक जीवन को बुरी तरह/जलाती है."/भयंकर है, अंगार है ! एक जीवन को पूरी तरह/जिलाती है""/शुभंकर है, शृंगार है।” (पृ.३८) पहले खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' में ऐसे धाराप्रवाह विचारों के साथ माटी और धरती माँ के बीच के संवाद, कुम्भकार के आगमन, मिट्टी के खनन और वहन, संशोधन और विवेचन के साथ हम भौतिक विश्व के कुछ दुखद पहलुओं से होकर भी गुज़रते हैं, जिनके बारे में आचार्यश्री कहते हैं : "अब तो/अस्त्रों, शस्त्रों, वस्त्रों/और कृपाणों पर भी 'दया-धर्म का मूल है'/लिखा मिलता है... कहाँ तक कहें अब !/धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है शास्त्र शस्त्र बन जाता है/अवसर पाकर ।" (पृ. ७३) और यह कटु सत्य : " 'वसुधैव कुटुम्बकम्'/इसका आधुनिकीकरण हुआ है 'वसु' यानी धन-द्रव्य/'धा' यानी धारण करता/आज धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ. ८२)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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