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'मूकमाटी' की गागर का सागर अथाह है !
डॉ. सुकमाल जैन
धर्म-दर्शन और आध्यात्मिक चिन्तन के प्रख्यात मर्मज्ञ आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने महाकाव्य 'मूकमाटी' की प्रस्तावना 'मानस - तरंग' (पृ. XXIV) में इन भावों के साथ अपनी रचना यात्रा का संकेत दिया है :
और उनकी इस रचना यात्रा ने जिन मुक्त छन्दों को जन्म दिया है, उनमें माटी की मूक वेदना और आकांक्षा को वाणी मिली है, उसकी उपादेयता और निर्मलता को एक अत्यन्त गहन, गम्भीर, पवित्र आधार मिला है, और उनमें मानव-जीवन के कई विलक्षण मन्तव्यों को सूक्तियों में गढ़ कर प्रस्तुत किया गया है। इसकी भाव- कथा में कुम्भकर शिल्पी मिट्टी की ध्रुव और भव्य सत्ता को पहचान कर उसे कूट-छाँट कर निर्मल और पवित्र कुम्भ यानी कलश का रूप देता है। जहाँ वह माटी मंगल पूजा- कलश बन कर जीवन की सार्थकता प्राप्त करती है ।
'मूकमाटी' महाकाव्य चार खण्डों में अनेक वैचारिक प्रवाहों, भाव-चारित्रिक संवादों और चिन्तनशील आधारों पर विकसित होता हुआ अपनी आध्यात्मिक पराकाष्ठा पर पहुँचता है । घटनाओं की विविधता और जीवन के पहलुओं को प्रकाशित करनेवाले सांसारिक, भौतिक और सांस्कृतिक तत्त्वों में गुँथी हुई यह अध्यात्म - कथा पाठक को प्रारम्भ से समाप्ति तक बाँधे रखती है, और जब तक पाठक अन्तिम छन्द तक नहीं पहुँच जाता है, तब तक उसकी आत्मिक कौतूहलता बनी रहती है कि वस्तुतः यह विचार - क्रम किस रूप में पहुँच कर समाप्ति का संकेत बनता है ।
माटी की आध्यात्मिक और भौतिक यात्रा पहले खण्ड में पिण्ड रूप में कंकर कणों से मिली-जुली अवस्था से चलती हुई कुम्भकार की कल्पना माटी के मंगल घट तक चलती है और हमें जीवन के कुछ पहलुओं से परिचित कराती हुई कहती है :
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और इस क्रम O
* मढ़िया जी (जबलपुर) में / द्वितीय वाचना का काल था
सृजन का अथ हुआ और / नयनाभिराम - नयनागिरि में / पूर्ण पथ हुआ समवसरण मन्दिर बना / जब गजरथ हुआ "
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" बहना ही जीवन है।" (पृ. २)
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पथ पर चलता है/ सत्पथ - पथिक वह
मुड़कर नहीं देखता / तन से भी, मन से भी । " (पृ. ३)
" जैसी संगति मिलती है / वैसी मति होती है
मति जैसी, अग्रिम गति / मिलती जाती मिलती जाती...।” (पृ. ८)
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चिन्तक विद्वान् इस खण्ड में जीवन के जिन विलक्षण पहलुओं को सूक्तिबद्ध करते हैं, उनकी कुछ झलक इन छन्दों में मिलती है :
" सत्ता शाश्वत होती है, बेटा !/ प्रति- सत्ता में होती हैं अनगिन सम्भावनायें / उत्थान - पतन की ।" (पृ. ७) " पर्वत की तलहटी से भी / हम देखते हैं कि / उत्तुंग शिखर का दर्शन होता है, / परन्तु / चरणों का प्रयोग किये बिना