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मूकमाटी-मीमांसा :: 261 जब फूल से काम चल सकता है/शूल का व्यवहार क्यों ?" (पृ.२५७) आतंकवाद के सम्बन्ध में आपने लिखा है कि अन्त में आतंकवाद ही स्वयं आतंकित हुआ :
"आतंकवाद का बल/शनैः-शनैः निष्क्रिय होता जा रहा है।
दल-दल में फँसा/बलशाली गज-सम !" (पृ. ४३२) आपने अहिंसात्मक संघर्ष करने की प्रेरणा दी :
“संहार की बात मत करो,/संघर्ष करते जाओ!
हार की बात मत करो,/उत्कर्ष करते जाओ!" (पृ. ४३२) आचार्यश्री ने अटूट विश्वास प्रकट किया है कि अन्त में सत्य की विजय होगी, अहिंसा की विजय होगी । और आतंकवाद, भेदभाव समाप्त होगा । उसे व्याकुल, शोकाकुल हो पश्चात्ताप करना होगा और अहिंसा की शरण में जाना होगा। हर एक को श्रमण बनना होगा । अन्य कोई उपाय नहीं है।
"कोई शरण नहीं है/कोई तरणि नहीं है/तुम्हारे बिना हमें यहाँ, क्षमा करो, क्षमा करो/क्षमा के हे अवतार !/हमसे बड़ी भूल हुई,
पुनरावृत्ति नहीं होगी/हम पर विश्वास हो !" (पृ. ४७४) आचार्यश्री विद्यासागर के मत में प्रत्येक को साधक बनना होगा। साधक बनने के लिए प्रारम्भ में जीवन से मुख मोड़ने की, विरत होने की आवश्यकता नहीं है । अत: सही जीवन को अपनाने का आपने उपदेश दिया है।
आतंकवादी वह है, जो स्वयं भयभीत है। अपने भीतर के भय से भय खाया हुआ है । उसे छिपाने के लिए वह औरों को डराता है। वह जीवन से विरत हुआ है । वैराग्य का यह भयावना रूप है । अन्त में हारकर उसे जीवन में लौटना होगा, क्योंकि :
“प्रकृति से विपरीत चलना/साधना की रीत नहीं है। बिना प्रीति, विरति का पलना/साधना की जीत नहीं,/ भीति बिना प्रीति नहीं'
... प्रीति बिना रीति नहीं/और/रीति बिना गीत नहीं।" (पृ. ३९१) आचार्यश्री के मत में प्रीति और भीति में समरसता हो । जीवन को सही दिशा एवं सही स्थिति में रखने के लिए भीति, भय को प्रवर्तित करना होगा और प्रीति को उदात्त करना होगा।
इस प्रकार आचार्यश्री विद्यासागरजी ने जीवन को संयमित रखने, जीवन की सत्यता को पहचानने और उसे साधन बनाकर परम सत्य को प्राप्त करने का सन्देश दिया है । गणतन्त्र के बारे में आचार्यजी ने लिखा है कि आज यह गणतन्त्र नहीं, धन तन्त्र बन गया है या मनमाना तन्त्र बन गया है। जहाँ न्याय समय पर नहीं मिलता तो उसे न्याय नहीं, अन्याय ही मानना चाहिए।
"आशातीत विलम्ब के कारण/अन्याय न्याय-सा नहीं
न्याय अन्याय-सा लगता ही है ।" (पृ. २७२) आपने गणतन्त्र को बलतन्त्र बताया है और बल का सदुपयोग करने पर बल दिया :