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मूकमाटी-मीमांसा :: 259 समुचित वितरण आदि पर भी लिखा है :
"वह जल रत्नाकर बना है-/बहा-बहा कर
धरती के वैभव को ले गया है।" (पृ. १८९) संग्रह एवं शोषण की आपने निन्दा की है :
"पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना/अज्ञान को बताता है, और/पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना/मोह-मूर्छा का अतिरेक है। यह अति निम्न-कोटि का कर्म है/स्व-पर को सताना है,
नीच-नरकों में जा जीवन बिताना है।" (पृ. १८९) आप आगे कहते हैं कि अर्थ कभी परमार्थ की ओर बढ़ने नहीं देता :
"यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकती,
अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२) परिश्रम का फल स्वीकारना हितकर है । पर-धन मिट्टी के ढेले के बराबर है तथा परकान्ता अपनी जननी के बराबर होती है :
"परिश्रम के बिना तुम/नवनीत का गोला निगलो भले ही, कभी पचेगा नहीं वह/प्रत्युत, जीवन को खतरा है ! पर-कामिनी, वह जननी हो,/पर-धन कंचन की गिट्टी भी
मिट्टी हो सज्जन की दृष्टि में!" (पृ. २१२) व्यास महर्षि की सूक्ति इस सन्दर्भ में स्पृहणीय है :
"अष्टादश-पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥" धन के वितरण के सम्बन्ध में आपने लिखा है :
"शिष्टों का उत्पादन-पालन हो/दुष्टों का उत्पातन-गालन हो,
सम्पदा की सफलता वह/सदुपयोगिता में है ना !" (पृ. २३५) शब्द साधारण और अर्थ अनन्त :
"पर की दया करने से/स्व की याद आती है/और स्व की याद ही/स्व-दया है/विलोम-रूप से भी
यही अर्थ निकलता है/याद "द "या"।" (पृ. ३८) दूसरों के दया के पात्र बनने से अपना महत्त्व घट जाता है और जब अपनी स्थिति की पहचान हो जाती है तो उसके बाद अपनी स्थिति पर दया आ जाती है । तात्पर्य यह है कि लोग दूसरों पर तरस खाते हैं और अपनी दयनीय