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________________ 258 :: मूकमाटी-मीमांसा "श्वान-सभ्यता-संस्कृति की/इसीलिए निन्दा होती है/कि वह अपनी जाति को देख कर/धरती खोदता, गुर्राता है। सिंह अपनी जाति में मिलकर जीता है,/राजा की वृत्ति ऐसी ही होती है, होनी भी चाहिए।" (पृ. १७१) इस सन्दर्भ में आप आत्माभिमान, स्वतन्त्रता, अस्मिता की व्याख्या करते हैं : "अपनी स्वतन्त्रता-स्वाभिमान पर/कभी किसी भाँति आँच आने नहीं देता वह !" (पृ. १७०) इस प्रकार आचार्यजी ने देश को सम्पूर्ण स्वाधीन जीवन के लिए संघर्ष करने का सन्देश दिया है। आप लिखते हैं कि ज्ञान की प्राप्ति से बोध में आकुलता पलती है। शोध में निराकुलता फलती है। चेतनाशील प्राणी संवेदनशील होता है । अत: जगत् से, जीवकोटि से राग-अनुराग जोड़ता है। आचार्यजी ने जीवन की व्याख्या करते हुए लिखा है कि किसी को परुष नहीं होना चाहिए। जो अपनी जीभ जीतता है, दुःख रीतता है उसी का । सुख में जीवन बीतता है और चिरंजीव भी बनता वही। कबीर की सूक्ति इस सन्दर्भ में स्मरणीय है : "ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय । औरन को सीतल करै, आप हुँ सीतल होय ॥" आचार्यजी ने आहार-विहार के सन्दर्भ में लिखा है : "आधा भोजन कीजिए/दुगुणा पानी पीव । तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी/वर्ष सवा सौ जीव !" (पृ. १३३) भगवान् श्रीकृष्ण ने 'गीता' (६/१७) में कहा है : "युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ॥" आचार्यजी ने काव्य में छोटी-छोटी बात पर ध्यान दिया है। स्थितप्रज्ञता के लिए प्रेरित किया है। अर्थ और परमार्थ की व्याख्या करते हुए आपने लिखा है : "परमार्थ तुलता नहीं कभी/अर्थ की तुला में अर्थ को तुला बनाना/अर्थशास्त्र का अर्थ ही नहीं जानना है और/सभी अनर्थों के गर्त में/युग को ढकेलना है । अर्थशास्त्री को क्या ज्ञात है यह अर्थ ?" (पृ. १४२) आगे आप प्रश्न करते हैं : "धन जीवन के लिए/या जीवन धन के लिए ? मूल्य किसका/तन का या वेतन का,/जड़ का या चेतन का ?" (पृ. १८०) प्रश्न में उत्तर निक्षिप्त है । आचार्यश्री ने धन का संग्रह, धन के प्रवाह से होनेवाले अहित कार्य और अर्थ के
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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