________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 257 सामासिक संस्कृति वाले, बहुभाषी देश में अविश्वास सर्वनाश की जड़ें बन जाती है । एक देश में सहधर्मी, सहजाति में ही वैमनस्य भाव परस्पर देखे जाते हैं :
"श्वान, श्वान को देख कर ही/नाखूनों से धरती को खोदता हुआ
गुर्राता है बुरी तरह ।” (पृ. ७१) इस उपमान के द्वारा आचार्यजी ने भारत में होनेवाले जातिगत वैमनस्य का चित्र खींचा है। एक जाति की स्थिति इस प्रकार है तो अन्य जाति पर कैसा विश्वास ?
"विजाति का क्या विश्वास ?/आज श्वास-श्वास पर विश्वास का श्वास घुटता-सा/देखा जा रहा है। प्रत्यक्ष !....
.... 'मुँह में राम/बगल में छुरी'/बगुलाई छलती है ।" (पृ. ७२) वे धर्म के सन्दर्भ में लिखते हैं कि 'दया' धर्म का मूल है । परन्तु, आज कृपाण कृपालु नहीं हैं। वे कहते हैंहम हैं कृपाण, हम में कृपा-न । धर्म का झण्डा भी डण्डा बन जाता है, और शास्त्र शस्त्र बन जाता है । अवसर पाकर प्रभु स्तुति में तत्पर सुरीली बाँसुरी भी बाँस बन पीट सकती है। आचार्यजी का यह खरा सन्देश है। भारत में पनपनेवाले पंजाब, असम के आतंकवादी तथा विघटनकारी तत्त्वों की ओर यह संकेत है।
"मोक्ष की यात्रा/ "सफल हो/मोह की मात्रा/ विफल हो
धर्म की विजय हो/कर्म का विलय हो।” (पृ.७६-७७) प्रसंग में जोड़कर आचार्यजी लिखते हैं कि शव में आग लगाना होगा और शिव में राग जगाना होगा । अर्थात् असार जीवन को समाप्त कर शिवत्व के साथ सम्बन्ध जोड़ना होगा।
__ संसारी प्राणी का पंच तत्त्वों में जन्म लेकर पंच तत्त्वों में ही विलीन होना सिद्ध है । जल में जन्म लेकर भी जलती रही यह मछली । आचार्य जी ने पंच तत्त्वों के बारे में व्याख्या करते हुए लिखा है कि जल में जनम लेकर भी जल से, जलचर जन्तुओं से जलती रही मछली, क्योंकि जड़ में शीतलता कहाँ ? जबकि धरती माँ की स्पर्शरूपी शीतलता ही शीत-लता बन गई । इस सन्दर्भ में आचार्यजी ने उपमान देते हुए मानो तैत्तिरीय उपनिषद्' का सार समझाया है कि जीव अन्न से पैदा होता है, अन्न से बढ़ता है और अन्न में विलीन हो जाता है । अन्न परब्रह्म स्वरूप है :
"अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् ।/अन्नाद्ध्यखल्विमानि भूतानि जायन्ते, । अन्नेन जातानि जीवन्ति । अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति ।
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!" पश्चिमी सभ्यता के सन्दर्भ में आपने लिखा है कि वह आक्रमणकारी है, विनाश की लीला विभीषिका है। भारतीय संस्कृति उसकी तुलना में सुख-शान्ति की प्रवेशिका है।
भारतीय संस्कृति क्षमा की मूर्ति है, जो कुम्भकार का स्वभाव बन गया है । वह क्षमा का अवतार बन गया है। इसलिए वह कहता है कि मैं क्षमा करता हूँ सबको, क्षमा चाहता हूँ सबसे, सबसे सदा-सहज बस मैत्री रहे मेरी । वैर किससे, क्यों और कब करूँ ?
श्वान और सिंह सभ्यता का अन्तर समझाते हुए आचार्यजी लिखते हैं कि भारतीय सभ्यता सिंह सभ्यता है। वह 'स्वयमेव मृगेन्द्रता' का प्रतीक है।