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256 :: मूकमाटी-मीमांसा
आचार्य श्री विद्यासागरजी ने इस छन्द में वर्ण-व्यवस्था का विश्लेषण किया है। भारतीय समाज में विजातियों के मिल जाने की प्रक्रिया का विवेचन किया है। अन्य जातियाँ दूध में पानी की तरह मिली रहें और अलग नहीं की जा सकें । तब भारतीय समाज स्वस्थ तथा सुदृढ़ बन जाता है । वर्णों का मिलना उस स्थिति में वरदान बन जाता है। कभी अलग करने का प्रयत्न हुआ हो तो एक दूसरे के लिए तड़प उठे। जिस प्रकार दूध को गर्म करने पर पानी भाप बनकर उड़ जाता है । अर्थात् जब दूध से पानी अलग होता जाता है तब बर्तन का दूध उसको पकड़ने के लिए ऊपर उठ-उठकर आता है और अपने मित्र के लिए अग्नि में भी प्रवेश कर जाता है । भारतीय समाज में इस स्थिति की अपेक्षा है। परन्तु कभी-कभी अन्य जातियों के सम्मिलन से वर्ण-संकर से क्षीर जैसा भारतीय समाज विघटित हो जाता है । तब वर्णसंकर अभिशाप बन जाता है । भारतीय समाज में आज कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो अलगाव की ओर समाज को प्रवृत्त करते हैं और टकराव पैदा करते हैं। इसी तत्त्व को स्पष्ट करते हुए आचार्यप्रवर ने अपनी काव्यभाषा में अभारतीय जातियों को सम्बोधित किया। भारतीय समाज को व्यवस्था दी कि विजातियों को अपने में समाहित किया जा सकता है।
“अरे कंकरो!/माटी से मिलन तो हुआ/पर/माटी में मिले नहीं तुम ! माटी से छुवन तो हुआ/पर/माटी में घुले नहीं तुम ! इतना ही नहीं,/चलती चक्की में डालकर/तुम्हें पीसने पर भी अपने गुण-धर्म/भूलते नहीं तुम !/भले ही
चूरण बनते, रेतिल;/माटी नहीं बनते तुम !" (पृ. ४९) आचार्यजी ने इस छन्द में अन्योक्ति के द्वारा भारतीय समाज के गठन का निर्देश किया है । विजातियों को भारतीय समाज से घुल-मिल जाने का उपदेश दिया है। इस मिट्टी से, वतन से प्यार करने का आदेश दिया है। भारतीय समाज के स्वस्थ गठन की ओर आचार्य जी जागरूक हैं।
आचार्यजी ने अहिंसा वृत्ति पर बल दिया है । अहिंसा बलशाली शस्त्र है । जब वह निरुपयोगी हो जाता है तो व्यक्ति शस्त्र उठाता है।
"बात का प्रभाव जब/बल-हीन होता है हाथ का प्रयोग तब/कार्य करता है।
और/हाथ का प्रयोग जब/बल-हीन होता है
हथियार का प्रयोग तब/आर्य करता है ।" (पृ. ६०) आगे आचार्यजी स्पष्ट करते हैं कि समाज के जीवन में जहाँ कहीं गाँठ पड़ जाती है वहाँ हिंसा पनपती है। इसलिए जीवन तथा समाज को निर्ग्रन्थ बनाने की अपेक्षा है।
"हमारी उपास्य-देवता/अहिंसा है और जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है/वहाँ निश्चित ही/हिंसा छलती है। अर्थ यह हुआ कि/ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है ।... ...हम निर्ग्रन्थ-पन्थ के पथिक हैं/इसी पन्थ की हमारे यहाँ चर्चा-अर्चा-प्रशंसा/सदा चलती रहती है ।... ...इसीलिए गाँठ का खोलना/आवश्यक ही नहीं अनिवार्य रहा ।/समझी बात !" (पृ. ६४-६५)