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मूकमाटी-मीमांसा :: 255
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।" (२/४७) दूसरी ओर अहम् को छोड़ने से तात्पर्य कर्म के फल के साथ संगति छोड़ना है । कबीर कहते हैं :
"जब मैं था तब तुम नहीं, अब तुम हो हम नाहिं।" दूसरे सन्दर्भ में अहम् का वमन करने से तात्पर्य छोटे अहम् को त्यागना है । महती अहम् के साथ अपने अहम् को जोड़ना है । अर्थात् अपने अहंकार को विस्तृत करना है ताकि उसमें विश्व के समस्त जीव कोटि समा सकें । अपने सुख को विस्तृत करना है ताकि सबके सुख में अपना सुख मान लिया जाए । कवि जयशंकर प्रसाद का कथन है :
"औरों को हँसते देखो मनु/हँसो और सुख पाओ;
अपने सुख को विस्तृत कर लो...।' 'मूकमाटी' कार का कथन है :
0. “औरों के सुख को देख, जलना/औरों के दुःख को देख, खिलना
दुर्जनता का सही लक्षण है।" (पृ. १६८)
० “गलत निर्णय दे/जिया नहीं जा सकता।" (पृ. ३०) जीवन में गलत निर्णय लेकर गलत रास्तों पर चलना अहितकर होगा। इसलिए कभी ग़लत कदम न उठाते हुए स्वच्छ, सरल, सहज तथा पवित्र जीवन बिताने की आवश्यकता है।
“पश्चात्ताप की आग में झुलसती-सी माटी।" (पृ. ३६) अपने किए पर पश्चात्ताप करना उत्तम मानव का लक्षण है। क्योंकि पश्चात्ताप से पाप धुल जाता है। फिर कभी कोई ग़लत क़दम न उठाने का निर्णय ले सकता है। इस प्रकार एक-एक करके जीवन में सभी दोष मिटाए जा सकते हैं । जन्म-जन्मों के संस्कारों के फलस्वरूप सम्भव होनेवाले दोषों का निवारण पश्चात्ताप से हो जाता है । गीता का 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणि' का तात्पर्य यही है कि सही ज्ञान से ग़लती का एहसास हो जाता है और फिर दूसरी बार ग़लती नहीं होती । जन्म-जन्मों के चक्र से मुक्त होने की लालसा जग जाती है । इसलिए मानव-जीवन में पश्चात्ताप का बड़ा महत्त्व है।
“वासना का विलास/मोह है,/दया का विकास/मोक्ष है।" (पृ. ३८) मानव-जीवन में जब वासना प्रबल होती है, तब मोह बढ़ता है । काम का विकास मोह है और सारी विलासक्रीड़ाएँ मोह के फलस्वरूप होती हैं, जो पतन के कारण बनती हैं। अपने आप पर दया करने से उसके प्रति अहितकारी कार्यों से दूर हो जाते हैं और इससे जीवन के कार्य-कलापों की दिशा बदल जाती है । सज्जनता व साधु प्रवृत्ति को अपनाकर बन्धन रहित मोक्षपथगामी कार्यों में रुचि लेते हैं, अन्त में जीवन का उद्धार हो जाता है । इसलिए दया, करुणा का विकास मोक्षप्रद हो जाता है।
"नीर का क्षीर बनना ही/वर्ण-लाभ है,/वरदान है। और क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है।" (पृ. ४९)