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254 :: मूकमाटी-मीमांसा सिद्धावस्था का मूल स्थान है । लौकिक जगत् में आस्था या विश्वासी अन्धविश्वासी बन जाता है। तार्किक वितण्डावादी हो जाता है। इस प्रकार दोनों बदनाम हैं कि एक घोर आस्तिक है तो दूसरा घोर नास्तिक । व्यक्ति की ये दोनों स्थितियाँ असंगत हैं। वह ईश्वर है भी और नहीं भी। उपनिषदों में जिस प्रकार कहा गया है कि "ना इति, न इति"- नहीं नहीं है। इसमें नहीं, उसमें नहीं । अर्थात् किसी में नहीं है । जो रूप हमारे लिए अगम्य है, दुस्तर है। इस अर्थ में वह वहाँ नास्ति है । परन्तु दूसरे रूप में वहाँ वह अस्ति है । ईश्वर के अनेक रूप हैं । एक रूप में वह सिद्ध होता है तो दूसरे रूप में वह अप्राप्त है। इसलिए वह है और नहीं भी। किसी वितण्डावादी ने कहा था - 'God is no where?' इसमें 'No' के साथ ‘w' जोड़ें तो 'Now here' हो जाएगा। अस्ति-नास्ति की विचिकित्सा इतने में ही है ।
"आयास से डरना नहीं/आलस्य करना नहीं !" (पृ. ११) जीवन का अर्थ कर्म है। कर्म ही जीवन है। कर्म नहीं है तो जीवन की सार्थकता नहीं है। कर्म करना ही जीवन का लक्ष्य है । अर्थात् प्रत्येक को कर्म करने का अधिकार है । आलसी बने रहने में मृत्यु का वरण करना है। इसलिए अकर्मण्यता मृत्यु है। आचार्यश्री विद्यासागरजी ने कर्ममय जीवन को जीवन मानकर 'मूकमाटी' में चेतना भर दी है।
"साधना-स्खलित जीवन में/अनर्थ के सिवा और क्या घटेगा ?" (पृ. १२) कार्य-साधना जीवन का लक्ष्य है। कर्मच्युत होना जीवन-पथ से गिर जाना है। साधना से हट जाना जीवन से हट जाना है। इसके फलस्वरूप जीवन सार्थक नहीं होगा, अर्थात् किसी महत्कार्य को साधना ही जीवन का लक्ष्य है । उसको प्राप्त करने की साध (ज़िद) होनी चाहिए। साधना से स्खलित जीवन में खाली हाथ होंगे। कर्म से तात्पर्य साधना है, परम साध्य को प्राप्त करना है।
___“अपनी ओर ही/बढ़ते बढ़ते/आ रहे वह/श्रमिक-चरण"।" (पृ.२५) पात्र बनाने हेतु मिट्टी का चयन करने के लिए कुम्हार को आता देखकर माटी कहती है कि वे अपनी ओर ही बढ़ रहे हैं। वे श्रमिक के चरण हैं अर्थात् पात्र बनाने के लिए अपना चयन होगा। ये अपना सौभाग्य माना जाएगा कि हम उसके वरण के लिए योग्य हुए। कबीर का दोहा इसी दृश्य को उपस्थित करता है।
_ "माली आवत देखिकै, कलियाँ करी पुकार ।
फूले फूले चुन लिये, कालि हमारी बार ॥" मानव को इस क़दर योग्य बनना चाहिए कि किसी उत्तम कार्य के लिए उसकी पवित्रता सिद्ध हो जाए और उसका चयन हो जाए । अपने कर, मुख, नयन ईश्वर की सेवा करने योग्य हो जाएँ। उसके स्तुति-गान में अपने जीवन को सार्थक बना लें । जगत् की इस ईश्वरीय लीला में हर व्यक्ति अपना कर्तव्य/कर्म करे । इस रंगमंच पर अपना पार्ट अदा करे।
“ओंकार को नमन किया/...अहंकार का वमन किया है ।" (पृ. २८) जीवन के निर्माण में शिल्पी ने ईश्वर की वन्दना की। और उसने अपनी कार्य-कुशलता के कारण उत्पन्न होने वाले अहंकार को छोड़ दिया। मनुष्य अपना कर्म करें और फल की चिन्ता न करें। 'गीता'कार का कहना है :