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मूकमाटी-मीमांसा :: 253
का प्रयास किया जाता है :
"बहना ही जीवन है।" (पृ. २) जीवन एक प्रवाह है। उसका अपना स्रोत है। इसलिए वह स्रवन्ती है। आरम्भ में वह झरना है। आगे वह सरिता बन जाती है । अन्त में सागर से संगम प्राप्त करती है । इसीलिए 'चरैवेति चरैवेति' कहा गया है । गतिशील प्रवाह ही जीवन कहलाता है।
"ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना/सब के वश की बात नहीं।" (पृ. २) मानव-जीवन की सबसे बड़ी कमज़ोरी ईर्ष्या है। साधक को इस पर विजय प्राप्त करने की आवश्यकता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि ईर्ष्या से उत्तेजित हो जाते हैं और इनके कारण जीवन पतित हो जाता है । इस पर विजय प्राप्त करना साधना का लक्ष्य है।
“सत्ता शाश्वत होती है/सत्ता भास्वत होती है...।" (पृ. ७) इस संसार में सत्ताकामी, यशोकामी और धनकामियों का राज्य है । जो सत्ता भास्वत होती है, वही शाश्वत होती है । जिस सत्ता के कारण शोषण प्रबल होता है और दूसरों को त्रास मिलता है, वह सत्ता अशाश्वत होती है ।
"जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है ।" (पृ. ८) दिन-रात सज्जनों की संगति से मति सुमति हो जाती है । सात्त्विक प्रवृत्ति के साथ संगति बैठने के कारण जीवन की, साधना की गति और दिशा निर्धारित हो जाती है । अर्थात् साधु पुरुषों का सांगत्य, सद्ग्रन्थों का पठन अपेक्षित है।
साधना मार्ग पर जीव को अपने आप को सुधारना चाहिए। कंकर-पत्थर से माटी अशुद्ध होती है और पानी में मिलकर छन जाती है।
"असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है, बेटा!" (पृ. ९) ___ अपनी क्षुद्रता को, अपनी अस्मिता की सीमा को पहचानना ही सत्य पथगामी का लक्षण होता है । अपने आपको पहचानने के लिए तत्काल अपनी स्थिति को पहचानने की आवश्यकता है । उपनिषद् कहती है कि जो यह जानता है कि मुझे बहुत कुछ जानना है वह कुछ तो जानता है । जो यह मानता है कि वह सब कुछ जानता है वह कुछ नहीं जानता। "वेद वेद इति नोन वेद च । नोन वेद इति वेद वेद च।" अपने आप को अल्पमति मानने से अनन्त ज्ञान की खोज जारी रहती है । अन्यथा, अनन्त खोज की गति मन्द पड़ जाती है या रुक जाती है।
“आस्था के बिना रास्ता नहीं/मूल के बिना चूल नहीं।" (पृ. १०) मानव-जीवन में आस्था प्रमुख तत्त्व है। जहाँ विश्वास नहीं, वहाँ शान्ति नहीं होती। जीवन के मूल में विश्वास है। जीवन के सभी सम्बन्ध विश्वास से बनते हैं। अर्थात् तर्क सर्वत्र काम नहीं देता । कहीं न कहीं विश्वास पर जाकर वह टिक जाता है । जो विश्वास पर चलते हैं, वे उस विश्वास को दृढ़ विश्वास बनाने के प्रयास में तर्क ढूँढ़ा करते हैं। जो तर्क के आधार पर चलते हैं, वे तर्क पर तर्क जोड़कर उस तर्क को विश्वास बना लेते हैं अर्थात् विश्वास तर्क जोड़ता है और तर्क विश्वास बनता है। साधना की एक छोर पर विश्वास है तो दूसरी छोर पर तर्क है । दोनों का संगम स्थान