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भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की गौरव गाथा : 'मूकमाटी' महाकाव्य
डॉ. सीएच. रामुलु 'मूकमाटी' आचार्य श्री विद्यासागरजी विरचित आधुनिक महाकाव्य है । इसमें माटी के जीवन की व्याख्या के मिस मानव-जीवन की व्याख्या की गई है। माटी की अपनी वाणी नहीं है । उसका जीवन ही उसकी वाणी बनकर बोलता है । माटी की अपनी मूक साधना है, तपस्या है, जिसकी व्याख्या करना विरले कवि के बस का होता है। आचार्य श्री विद्यासागरजी स्वयं मूक साधक हैं। अपनी तपस्या साधना के बल पर मूकमाटी को आपने वाणी दी है। जीवन के अद्भुत रहस्यों को प्रकट किया है । आपने सिद्ध किया कि मौन बने रहने से वाक् सिद्धि होती है । प्रकट अभिव्यक्ति में वाणी सीमित होती है । अनुभूति की समग्र अभिव्यक्ति असम्भव है । मुनि की मौन साधना में अनन्त अनुभव का प्रसारण अनेक दिशाओं में होता है । प्रकट अभिव्यक्ति में असमग्रता है, अपूर्णता है । मूक वाणी में समग्र चिन्तन प्रकट होता है। अनन्त सम्भावनाएँ प्रतिफलित होती हैं । माटी मनुष्य की प्रतीक है । जीवन की प्रतीक है । इस प्रकार 'मूकमाटी' में मानव-जीवन की मूक साधना प्रसारित होती है । जीव की मूक वेदना प्रकट हुई है । अनन्त जीवकोटि की संवेदना अभिव्यक्त हुई है।
माटी तुच्छ है । जीवन क्षुद्र है, क्षणिक है तथा ससीम है । इस माटी को, अणु को उदात्त बनना है । अपनी साधना से अनन्त स्थिति को प्राप्त करना है, महान् सिद्धि को प्राप्त करना है। इस अनन्त यात्रा में अपनी कमजोरियों को, क्षुद्रताओं को प्रक्षालित करना है । अणु से महान् का आविष्कार करना है । अर्थात् अणु को, अपने आप को पहचानने की अपेक्षा है । इस साधना में ही साध्य निक्षिप्त है। साधना के अन्त में सिद्धि प्राप्त हो जाती है। परन्तु साधना के प्रत्येक क्षण में भी सिद्धि की प्राप्ति होती है । अनन्त काल महान् है । क्षण महान् है । माटी भी महान् है । माटी में छिपा अभिव्यक्त पुरुष महान् है । माटी के रूप में व्यक्त क्षुद्र व्यक्तित्व को अपने सहज, सीमित उपाधिगत तत्त्वों की दीवारों को लाँघकर जाति, कुल, सम्प्रदाय,भाषा, प्रदेश इत्यादि परदों को चीरकर आत्मदर्शन करने की प्रक्रिया में असामान्य साधना की आवश्यकता है। आचार्यप्रवर श्री विद्यासागरजी ने माटी की इस मूक साधना में विघटनकारी बाधाओं की व्याख्या करते हुए मानव-जीवन में उपस्थित होने वाले कंटकों की व्याख्या की। 'मूकमाटी' एक दार्शनिक काव्य है। इसके मूल में आध्यात्मिक जीवन का वृत्त संकलित है। जीवन की साधना में निवृत्ति मार्ग को अपने में समेटा हुआ प्रवृत्ति मार्ग प्रबोधित है । जीवन-संघर्ष में अग्नि-परीक्षा को चुनौती के रूप में स्वीकार करने का उपदेश दिया है । अग्नि में तपकर जिस प्रकार माटी उज्ज्वल, उदात्त तथा शुद्ध बनती है, उसी प्रकार परीक्षाओं की कसौटी पर कसा जाकर मानव संस्कारित, परिष्कृत होता है। उसकी क्षुद्र भावनाओं का संस्कार, परिष्कार होता है, तब उसकी हर भावना आदरणीय होती है । मानव-जीवन का प्रत्येक क्षण, प्रत्येक भाव अपने देश, काल, परिस्थिति के बन्धनों में सीमित होते हुए भी परिष्कृत होकर शुद्ध, बुद्धात्मा को प्राप्त कर उदात्त होता है । इस प्रकार मानव जीवन का प्रत्येक क्षण साधना के योग्य पूजनीय होता है और उसी प्रकार प्रत्येक पल, सम्पूर्ण काल पुरुष का समर्थ तथा शक्तिशाली अंश होता है । मानव का जीवन काल सापेक्ष है और देशापेक्षित । अर्थात् मानव जीवन काल तथा स्थान से नियन्त्रित होता है। इसलिए क्षुद्र, सीमित, असमग्र, असम्पूर्ण माना जाता है। परन्तु वही क्षण ईश्वरीय साधना के बल पर सबल, प्रबल, सुरम्य, समग्र, सम्पूर्ण हो जाता है । मूकमाटी को अन्त में परम पुरुष के रूप में वाणी मिल जाती है । मूक साधना को लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है।
आचार्यश्रेष्ठ श्री विद्यासागरजी ने मूकमाटी की मूक साधना को वाणी दी। अनन्त अनुभव को प्रकट किया है। मूकमाटी की इस जीवन-यात्रा में कई अनुभव रूपी रत्नों को संकलित किया गया है । उनको यथासाध्य यहाँ प्रस्तुत करने