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मूकमाटी-मीमांसा :: 251 "सलिल की अपेक्षा/अनल को बाँधना कठिन है/और/अनल की अपेक्षा अनिल को बाँधना और कठिन ।/परन्तु/सनील को बाँधना तो
सम्भव ही नहीं है।" (पृ. ४७२) कुम्भ के माध्यम से कविवर ने अपनी मंगलमयी अन्त:कामना को अभिव्यक्ति दी है :
"यहाँ "सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता। हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल विलसित हों
नाशा की आशा मिटे/आमूल महक उठे/"बस !" (पृ. ४७८) उपादान और निमित्त का सूक्ष्म चिन्तन भी समादरणीय है :
"उपादान-कारण ही/कार्य में ढलता है/यह अकाट्य नियम है,/किन्तु उसके ढलने में/निमित्त का सहयोग भी आवश्यक है, इसे यूँ कहें तो और उत्तम होगा कि/उपादान का कोई यहाँ पर पर-मित्र है"तो वह/निश्चय से निमित्त है/जो अपने मित्र का
निरन्तर नियमित रूप से/गन्तव्य तक साथ देता है।" (पृ. ४८१) 'मोक्ष' की परिभाषा सरलतम रूप में प्रस्तुत की गई है :
"बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है।
इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है।" (पृ. ४८६) कवि का अन्तिम सन्देश इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है :
"क्षेत्र की नहीं,/आचरण की दृष्टि से/मैं जहाँ पर हूँ/वहाँ आकर देखो मुझे, तुम्हें होगी मेरी/सही-सही पहचान/क्योंकि/ऊपर से नीचे देखने से मुझे चक्कर आता है/और/नीचे से ऊपर का अनुमान/लगभग गलत निकलता है। इसीलिए इन/शब्दों पर विश्वास लाओ,/हाँ, हाँ !! विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी/मगर/मार्ग में नहीं, मंज़िल पर !
और/महा-मौन में/डूबते हुए सन्त"/और माहौल को
अनिमेष निहारती-सी/"मूकमाटी !" (पृ. ४८७-४८८) इस प्रकार सूक्तियों, विचित्र उक्तियों, सुभाषितों का महासागर है यह महाकाव्य । इस महाकाव्य में अवगाहन करने पर ही परम शान्त रस का आस्वादन सम्भव है, तट के दर्शन मात्र से नहीं।