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250 :: मूकमाटी-मीमांसा
किसी के भी बन्धन में/बैधना नहीं चाहता मैं, न ही किसी को बाँधना चाहता हूँ।/जानते हम,/बाँधना भी तो बन्धन है !
तथापि/स्वच्छन्दता से स्वयं/बचना चाहता हूँ।" (पृ. ४४२-४४३) 'जड़' और 'जंगम' के अन्तर को कितनी सरलता से स्पष्ट किया है :
"जड़ और जंगम दो तत्त्व हैं/दोनों की अपनी-अपनी विशेषतायें हैंजंगम को प्रकाश मिलते ही/यथोचित गति मिलते ही विकास ही कर जाता है वह/जब कि/जड़ ज्यों-का-त्यों रह जाता। जड़ अज्ञानी होता है/एकान्ती हठी होता है।
कूटस्थ होता है त्रस्त !/स्वस्थ नहीं हो सकता वह।” (पृ. ४४६) 'धरती' एवं 'तीर्थ' की महत्ता को उदारमना कवि ने अत्यन्त उदारता से स्वीकार किया है :
"जिसने धरती की शरण ली है/धरती पार उतारती है उसे यह धरती का नियम है "व्रत !/धरती शब्द का भी भाव विलोम रूप से यही निकलता है-/"र"ती ती "र"" यानी,/जो तीर को धारण करती है/या शरणागत को तीर पर धरती है/वही धरती कहलाती है। और सुनो ! 'ध' के स्थान पर/'थ' के प्रयोग से तीरथ बनता है
शरणागत को तारे सो"तीरथ !" (पृ. ४५१-४५२) आवरण का विवेचन विचारणीय है :
"आचरण के सामने आते ही/प्राय: चरण थम जाते हैं
और/आवरण के सामने आते ही/प्राय: नयन नम जाते हैं।" (पृ. ४१२) वर्तमान में सत्य की विवशता पर कवि-हृदय की आन्तरिक व्यथा प्रकट हुई है :
"सत्य का आत्म-समर्पण/और वह भी/असत्य के सामने ?/हे भगवन् ! यह कैसा काल आ गया,/क्या असत्य शासक बनेगा अब ? क्या सत्य शासित होगा ?/हाय रे, जौहरी के हाट में आज हीरक-हार की हार !/हाय रे, काँच की चकाचौंध में मरी जा रही-/हीरे की झगझगाहट!/अब/सती अनुचरी हो चलेगी व्यभिचारिणी के पीछे-पीछे ।/असत्य की दृष्टि में/सत्य असत्य हो सकता है,
और/असत्य सत्य हो सकता है/परन्तु/सत्य को भी नहीं रहा क्या सत्यासत्य का विवेक ?/क्या सत्य को भी अपने ऊपर
विश्वास नहीं रहा ?" (पृ. ४६९-४७०) सलिल, अनल, अनिल और सनील की प्रकृति का बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है :