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मूकमाटी-मीमांसा :: 249
उपयुक्त समय माना गया है।/योग के काल में भोग का होना रोग का कारण है,/और/भोग के काल में रोग का होना
शोक का कारण है।” (पृ. ४०७) ध्येय, देह तथा विदेह का विश्लेषण कितनी सुन्दरता से हुआ है :
"अरे देहिन् !/द्युति-दीप्त-सम्पुष्ट देह/जीवन का ध्येय नहीं है, देह-नेह करने से ही/आज तक तुझे
विदेह-पद उपलब्ध नहीं हुआ।” (पृ. ४२८-४२९) 'प्राणदण्ड' के औचित्य पर आचार्यश्री का विशिष्ट चिन्तन सम्माननीय है :
"उद्दण्डता दूर करने हेतु/दण्ड-संहिता होती है/माना,/दण्डों में अन्तिम दण्ड प्राणदण्ड होता है ।/प्राणदण्ड से/औरों को तो शिक्षा मिलती है,/परन्तु जिसे दण्ड दिया जा रहा है/उसकी उन्नति का अवसर ही समाप्त । दण्डसंहिता इसको माने या न माने,/क्रूर अपराधी को/क्रूरता से दण्डित करना भी
एक अपराध है,/न्याय-मार्ग से स्खलित होना है।" (पृ. ४३०-४३१) 'पदलिप्सा' जो कि आधुनिक जीवन की अभिशाप है, उस पर भी कवि का सूक्ष्म चिन्तन प्रस्तुत है :
"पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु/पर को पद-दलित करते हैं, पाप-पाखण्ड करते हैं।/प्रभु से प्रार्थना है कि/अपद ही बने रहें हम ! जितने भी पद हैं/वह विपदाओं के आयाद है,/पद-लिप्सा का विषधर वह
भविष्य में भी हमें न सूंघे/बस यही भावना है, विभो !" (पृ. ४३४) मनीषी कवि का ‘मन्त्र प्रयोग' विषयक विशिष्ट ज्ञान निम्न पंक्तियों में परिलक्षित होता है :
“मन्त्र-प्रयोग के बाद/प्रतीक्षा की आश्यकता नहीं रहती हाथों-हाथ फल सामने आता है/यह एकाग्रता का परिणाम है । मन्त्र-प्रयोग करने वाला/सदाशयी हो या दुराशयी इसमें कोई नियम नहीं है।/नियन्त्रित-मना हो बस !
यही नियम है, यही नियोग ।” (पृ. ४३७) 'काल' और 'क्षेत्र' की महत्ता भी प्रतिपादित की गई है :
"फलानुभूति-भोग और उपभोग के लिए/काल और क्षेत्र की
अनुकूलता भी अपेक्षित है/केवल भोग-सामग्री ही नहीं।" (पृ. ४३९-४४०) कवि ने कुम्भ के माध्यम से बन्धन और स्वातन्त्र्य का सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत किया है :
“यहाँ/बन्धन रुचता किसे?/मुझे भी प्रिय है स्वतन्त्रता/तभी तो..