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248 :: मूकमाटी-मीमांसा
पर - पदार्थों का स्वामी बनना चाहता है ।" (पृ. ३७५)
'तन', 'मन' और 'चेतन' की प्रक्रिया का वर्णन अत्यन्त हृदयावर्जक शैली में किया गया है :
" तन की भी चिन्ता होनी चाहिए, / तन के अनुरूप वेतन अनिवार्य है, मन के अनुरूप विश्राम भी । / मात्र दमन की प्रक्रिया से / कोई भी क्रिया फलवती नहीं होती है, / केवल चेतन-चेतन की रटन से, चिन्तन-मनन से/कुछ नहीं मिलता !" (पृ. ३९१ )
प्रकृति के अनुरूप चलना ही साधना है :
" प्रकृति से विपरीत चलना / साधना की रीत नहीं है ।
बिना प्रीति, विरति का पलना / साधना की जीत नहीं ।" (पृ. ३९१ )
पुरुष की साधना में प्रकृति किस प्रकार सहयोगिनी होती है, सांख्य दर्शन के इस सिद्धान्त को कितनी सरलता किया गया है :
से प्रस्तुत
"लीला - प्रेमी द्रष्टा-पुरुष / अपनी आँखों को जब / पूरी तरह विस्फारित कर दृश्य का चाव से दर्शन करता है, / तब, क्या ? / प्रमत्त - विरता प्रकृति सो पलकों के बहाने /आँखों की बाधाओं को दूर करती / पल-पल सहलाती-सी ! पुरुष योगी होने पर भी / प्रकृति होती सहयोगिनी उसकी,
साधना की शिखा तक / साथ देती रहती वह, / श्रमी आश्रयार्थी को आश्रय देती ही रहती/सदोदिता स्वाश्रिता होकर ।" (पृ. ३९२)
प्रकृति की महिमा का वर्णन स्पृहणीय है :
"यही तो प्रकृति का / पावन - पन है पारद - पन / जो युगों-युगों से परवश हुए बिना, / स्व-वश हो / पावस बन बरसती है, / और पुरुष को विकृत-वेष आवेश से छुड़ा कर / स्ववश होने को विवश करती, पथ प्रशस्त करती है।” (पृ. ३९४)
सज्जनों और दुर्जनों के मुख से प्रसूत वाणी का भेद विचारणीय है :
"सत्पुरुषों से मिलने वाला / वचन - व्यापार का प्रयोजन / परहित - सम्पादन है और / पापी - पातकों से मिलने वाला / वचन - व्यापार का प्रयोजन
परहित - पलायन, पीड़ा है ।" (पृ. ४०२ )
दार्शनिक कवि का सन्ध्याकाल विषयक सूक्ष्म चिन्तन मननीय है :
“सन्धि-काल में सूर्य-तत्त्व का / अवसान देखा जाता है / और / सुषुम्ना यानी उभय-तत्त्व का उदय होता है / जो / ध्यान-साधना का