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इसमें कोई नियम नहीं है, / किन्तु वह / सन्तोषी अवश्य बनता है । सही दिशा का प्रसाद ही / सही दशा का प्रासाद है ।" (पृ. ३५२) स्वर्ण की व्यर्थता पर कवि ने रमणीय चिन्तन प्रस्तुत किया है :
"तुम स्वर्ण हो / उबलते हो झट से / माटी स्वर्ण नहीं है / पर स्वर्ण को उगलती अवश्य, / तुम माटी के उगाल हो ! / आज तक न सुना, न देखा / और न ही पढ़ा, कि / स्वर्ण में बोया गया बीज अंकुरित होकर / फूला फला, लहलहाया हो / पौधा बनकर । हे स्वर्ण - कलश ! / ... माटी स्वयं भीगती है दया से / और औरों को भी भिगोती है । / माटी में बोया गया बीज समुचित अनिल-सलिल पा/ पोषक तत्त्वों से पुष्ट - पूरित सहस्र गुणित हो फलता है ।" (पृ. ३६४-३६५ )
ध्येय की चंचलता ध्यान में बाधक बनती है :
मूकमाटी-मीमांसा :: 247
"कोई साधक साधना के समय / मशाल को देखते-देखते ध्यान-धारणा साध नहीं सकता / इसमें मशाल की अस्थिरता ही कारण है, ‘ध्येय यदि चंचल होगा, तो / कुशल ध्याता का शान्त मन भी चंचल हो उठेगा ही ।" (पृ. ३६९ )
वहीं ध्यान में दीपक की लौ साधक होती है :
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'... दीपक की लाल लौ / अग्नि-सी लगती, पर अग्नि नहीं, स्व-पर- प्रकाशिनी ज्योति है वह / जो स्पन्दनहीना होती है जिसे अनिमेष देखने से / साधक का उपयोग वह / नियोग रूप से, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर / बढ़ता-बढ़ता, शनै: शनै: / व्यग्रता से रहित हो एकाग्र होता है कुछ ही पलों में // फिर, फिर क्या ? समग्रता से साक्षात्कार !" (पृ. ३७०)
यथार्थ ज्ञान का लक्षण (कुम्भ के माध्यम से) अति सहजता से प्रस्तुत किया गया है :
" कुम्भ का सुनाना प्रारम्भ हुआ : / 'स्व' को स्व के रूप में 'पर' को पर के रूप में / जानना ही सही ज्ञान है, / और 'स्व' में रमण करना / सही ज्ञान का 'फल' ।” (पृ. ३७५)
अज्ञानी ही पर-पदार्थों में रमण का इच्छुक रहता है :
“विषयों का रसिक/ भोगों-उपभोगों का दास, / इन्द्रियों का चाकर और”—“और क्या?/तन और मन का गुलाम ही