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246 :: मूकमाटी-मीमांसा
अन्तर्मुखी, बन्दमुखी चिदाभा/निरंजन का गान करती है। दर्शन का आयुध शब्द है- विचार,/अध्यात्म निरायुध होता है सर्वथा स्तब्ध-निर्विचार !/एक ज्ञान है, ज्ञेय भी
एक ध्यान है, ध्येय भी।" (पृ. २८९) सत्ता परिवर्तनशील है :
“यहाँ पर कोई भी/स्थिर-ध्रुव-चिर/न रहा, न रहेगा, न था बहाव बहना ही धुव/रह रहा है,/सत्ता का यही, बस
रहस रहा, जो/विहँस रहा है।" (पृ. २९०-२९१) 'काया' और 'माया' में रहने मात्र से उसकी अनुभूति नहीं होती वरन् आन्तरिक लगाव ही उसका मुख्य कारण
"काया में रहने मात्र से/काया की अनुभूति नहीं,/माया में रहने मात्र से
माया की प्रसूति नहीं,/उनके प्रति/लगाव-चाव भी अनिवार्य है।" (पृ. २९८) श्रीफल के मुख से मृदुता और काठिन्य का सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है :
"मृदु और काठिन्य में साम्य है, यहाँ। और/यह हृदय हमारा/कितना कोमल है, इतना कोमल है क्या/तुम्हारा यह उपरिल तन ?/बस/हमारे भीतर जरा झाँको, मृदुता और काठिन्य की सही पहचान/तन को नहीं,
हृदय को छूकर होती है ।" (पृ. ३११) परमपूज्य मुनिश्री के पद-नख में कुम्भ के प्रतिबिम्ब का कितना ! सुन्दर !! वर्णन है :
"कन्दर्प-दर्प से दूर/गुरु-पद-नख-दर्पण में/कुम्भ ने अपना दर्शन किया
और/धन्य ! धन्य! कह उठा।” (पृ. ३२४-३२५) स्पर्धा की मीमांसा भी विचारणीय है :
"स्पर्धा प्रकाश में लाती है/कहीं "सुदूर 'जा'"भीतर बैठी
अहंकार की सूक्ष्म सत्ता को।" (पृ. ३३९) 'यति' और 'नियति' की परिभाषा भी स्पृहणीय है :
" 'नि' यानी निज में ही/'यति' यानी यतन - स्थिरता है
अपने में लीन होना ही नियति है/निश्चय से यही यति है।" (पृ. ३४९) सन्त समागम का परिणाम अचिन्त्य है :
“सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है/संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करनेवाला भले ही/तुरन्त सन्त-संयत/बने या न बने