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परम- धर्म माना है सन्तों ने । / दोष अजीव हैं, / नैमित्तिक हैं,
बाहर से आगत हैं कथंचित्; / गुण जीवगत हैं, /गुण का स्वागत है।” (पृ. २७७) 'रस' के आस्वाद का अधिकारी कौन
सकता है - इसे कवि ने अत्यन्त सुन्दरता के साथ स्पष्ट किया है : " रस का स्वाद उसी रसना को आता है / जो जीने की इच्छा से ही नहीं, मृत्यु की भीति से भी ऊपर उठी है । / रसनेन्द्रिय के वशीभूत हुआ व्यक्ति कभी भी किसी भी वस्तु के / सही स्वाद से परिचित नहीं हो सकता ।" (पृ. २८१ )
कुम्भ के माध्यम से कवि ने जीवन-लक्ष्य की ओर संकेत किया है :
मूकमाटी-मीमांसा :: 245
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"भुक्ति की ही नहीं, / मुक्ति की भी / चाह नहीं है इस घट में वाह-वाह की परवाह नहीं है / प्रशंसा के क्षण में // दाह के प्रवाह में अवगाह करूँ परन्तु, / आह की तरंग भी / कभी नहीं उठे / इस घट में संकट में । इसके अंग-अंग में / रग-रग में / विश्व का तामस आ भर जाय कोई चिन्ता नहीं, / किन्तु, विलोम भाव से / यानी ता ं ं ंम’ ं ंस स ं ंमतां!" (पृ. २८४)
कुम्भ की मनोकामना सम्माननीय है :
"रूप-र - सरस से / गन्ध परस से परे / अपनी रचना चाहता है, विभो ! संग-रहित हो / जंग-रहित हो / शुद्ध लौह अब / ध्यान- दाह में बस पचना चाहता है, प्रभो !” (पृ. २८५)
'ध्यान' की सूक्ष्म मीमांसा सभी के लिए मननीय है :
" ध्यान की बात करना / और / ध्यान से बात करना
इन दोनों में बहुत अन्तर है - / ध्यान के केन्द्र खोलने - मात्र से ध्यान में केन्द्रित होना सम्भव नहीं ।" (पृ. २८६ )
'दर्शन' और 'अध्यात्म' पर गहन चिन्तन करते हुए कवि ने दोनों के अन्तर को मनोहरता के साथ प्रस्तुत किया
"दर्शन का स्रोत मस्तक है, / स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है । / दर्शन के बिना अध्यात्म - जीवन चल सकता है, चलता ही है/ पर, हाँ !
बिना अध्यात्म, दर्शन का दर्शन नहीं । / लहरों के बिना सरवर वह रह सकता है, रहता ही है / पर हाँ ! / बिना सरवर लहर नहीं । ... अध्यात्म सदा सत्य चिद्रूप ही / भास्वत होता है ।
. बहिर्मुखी या बहुमुखी प्रतिभा ही / दर्शन का पान करती है,