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मूकमाटी-मीमांसा :: 243 "तन को अंग कहा है/मन को अंगहीन अन्तरंग/अनंग का योनि-स्थान है वह सब संगों का उत्पादक/सब रंगों का उत्पातक!/तन का नियन्त्रण सरल है
और/मन का नियन्त्रण असम्भव तो नहीं,/तथापि
वह एक उलझन अवश्य है/कटुक-पान गरल है वह"।" (पृ. १९८) स्त्री समाज को आचार्यश्री ने उपासनामय दृष्टि से देखा है । अत: 'मूकमाटी' में 'स्त्री' शब्द के पर्यायवाची शब्दों की सूक्ष्म मीमांसा की गई है :
० “कुपथ-सुपथ की परख करने में/प्रतिष्ठा पाई है स्त्री-समाज ने ।...
इनका सार्थक नाम है 'नारी'/यानी-/'न अरि' नारी
अथवा/ये आरी नहीं हैं/सो"नारी"!" (पृ. २०२) ० "जो/मह यानी मंगलमय माहौल,/महोत्सव जीवन में लाती है
'महिला' कहलाती वह ।" (पृ. २०२) ० "..जो/पुरुष-चित्त की वृत्ति को/विगत की दशाओं और
अनागत की आशाओं से/पूरी तरह हटाकर/ अब' यानी आगत - वर्तमान में लाती है / 'अबला' कहलाती है वह..!" (पृ. २०३) “ 'स्' यानी सम-शील संयम/'श्री' यानी तीन अर्थ हैं धर्म, अर्थ, काम-पुरुषार्थों में/पुरुष को कुशल-संयत बनाती है
सो' 'स्त्री' कहलाती है।” (पृ. २०५) कवि के हृदय में मातृशक्ति के प्रति विशिष्ट सम्मान है :
"जानने की शक्ति वह/मातृ-तत्त्व के सिवा/अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। ...मातृ-तत्त्व की अनुपलब्धि में/ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध ठप ! ...इसीलिए इस जीवन में/माता का मान-सम्मान हो,
उसी का जय-गान हो सदा,/धन्य"!" (पृ. २०६) मर्यादा का उल्लंघन किसी के लिए क्षम्य नहीं है :
"लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन/रावण हो या सीता
राम ही क्यों न हों/दण्डित करेगा ही!" (पृ. २१७) कलिकाल के प्रभाव से विश्व में भौतिकता का प्रचार-प्रसार वृद्धिंगत हो रहा है :
“कलि-काल की वैषयिक छाँव में/प्राय: यही सीखा है इस विश्व ने
वैश्यवृत्ति के परिवेश में-/वेश्यावृत्ति की वैयावृत्य!" (पृ. २१७) 'उपादेय' की प्राप्ति हेतु मात्र ‘उपाय' ही आवश्यक नहीं है वरन् ‘अपाय' की अनुपस्थिति भी आवश्यक है :
"उपाय की उपस्थिति ही/पर्याप्त नहीं,/उपादेय की प्राप्ति के लिए