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242 :: मूकमाटी-मीमांसा
वह आत्मसात् करने की ही है/कम शब्दों में/निषेध-मुख से कहूँ सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है ।/यूँ गुनगुनाता रहता
सन्तों का भी अन्तःप्रान्त वह ।/"धन्य !" (पृ. १५९-१६०) परिधि और केन्द्र का दृष्टान्त देते हुए अन्तः एवं बाह्य दृष्टि का कितना मनोहारी विश्लेषण किया है :
"परिधि की ओर देखने से/चेतन का पतन होता है/और परम-केन्द्र की ओर देखने से/चेतन का जतन होता है। परिधि में भ्रमण होता है/जीवन यूँ ही गुज़र जाता है,
केन्द्र में रमण होता है/जीवन सुखी नज़र आता है।" (पृ. १६२) मति और रति किस प्रकार क्रमश: विकास और विनाश का कारण बनती है :
"विकास के क्रम तब उठते हैं/जब मति साथ देती है/जो मान से विमुख होती है, और/विनाश के क्रम तब जुटते हैं/जब रति साथ देती है
जो मान में प्रमुख होती है ।/उत्थान-पतन का यही आमुख है।" (पृ. १६४) सज्जनता और दुर्जनता के लक्षणों को अभिव्यक्त करते हुए कवि कह उठता है :
"एक-दूसरे के सुख-दुःख में/परस्पर भाग लेना/सज्जनता की पहचान है, और/औरों के सुख को देख, जलना/औरों के दुःख को देख, खिलना
दुर्जनता का सही लक्षण है।" (पृ. १६८) अनेकान्त और स्याद्वाद को निम्न पंक्तियों में कितनी सरलता से समझाया गया है :
" 'हो' एकान्तवाद का समर्थक है/'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक ।... 'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को/'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है/'भी' वस्तु के भीतरी-भाग को भी छूता है।"
(पृ. १७२-१७३) वासना के विषय में कवि की उक्ति चमत्कारी है :
"वासना का वास वह/न तन में है, न वसन में
वरन्/माया से प्रभावित मन में है।” (पृ. १८०) सहनशीलता के माहात्म्य को अभिव्यक्ति देती हुई निम्न सूक्ति भी विचारणीय है :
"सर्व-सहा होना ही/सर्वस्व को पाना है जीवन में
सन्तों का पथ यही गाता है ।" (पृ. १९०) तृतीय खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' में आपने तन, मन - अनंग का कैसा सम्बन्ध है, इसे अत्यन्त सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दी है :