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मूकमाटी-मीमांसा :: 241 0 “सही अलंकार, सही शृंगार-/भीतर झाँको, आँको उसे हे शृंगार!"(पृ. १४१) स्वर और संगीत के विषय में भी कितना ! मर्मस्पर्शी !! चिन्तन प्रस्तुत किया है :
__ "स्वर संगीत का प्राण है/संगीत सुख की रीढ़ है/और
सुख पाना ही सब का ध्येय/इस विषय में सन्देह को गेह कहाँ ? निःसन्देह कह सकते हैं-/विदेह बनना हो तो
स्वर की देह को स्वीकारता देनी होगी/दे देहिन् ! हे शिल्पिन् !" (पृ. १४३) ० "संगीत उसे मानता है /जो संगातीत होता है/और/प्रीति उसे मानता हूँ .
जो अंगातीत होती है/मेरा संगी संगीत है/सप्त-स्वरों से अतीत :!"(पृ.१४४-१४५) प्रकृति माँ का सन्देश-"जीवन को मत रण बनाओ" यह कहते-कहते कवि गा उठता है :
"सदय बनो!/अदय पर दया करो/अभय बनो ! सभय पर किया करो अभय की/अमृत-मय वृष्टि सदा-सदा सदाशय दृष्टि/रे जिया, समष्टि जिया करो!
जीवन को मत रण बनाओ/प्रकृति माँ का ऋण चुकाओ !" (पृ. १४९) इसके साथ ही यह सन्देश कि अन्य प्राणियों का भी उचित मूल्यांकन होना नितान्त आवश्यक है, अन्यथा जीवन-दृष्टि अपूर्ण रह जाएगी :
“अपना ही न अंकन हो/पर का भी मूल्यांकन हो,/पर, इस बात पर भी ध्यान रहे पर की कभी न वांछन हो/पर पर कभी न लांछन हो !
जीवन को मत रण बनाओ/प्रकृति माँ का न मन दुखाओ !" (पृ. १४९) सत् के अस्तित्व को कितने !! सरल शब्दों में समझाने का प्रयत्न किया गया है :
"होने का मिटना सम्भव नहीं है, बेटा !/होना ही संघर्ष-समर का मीत है
होना ही हर्ष का अमर गीत है।" (पृ. १५०) करुण और शान्त रस के पार्थक्य को कितनी हृदयावर्जक शैली में प्रस्तुत किया गया है :
0 "करुणा तरल है, बहती है/पर से प्रभावित होती झट-सी।
शान्त-रस किसी बहाव में/बहता नहीं कभी/जमाना पलटने पर भी
जमा रहता है अपने स्थान पर ।" (पृ. १५६) ___ "करुणा-रस उसे माना है, जो/कठिनतम पाषाण को भी/मोम बना देता है,
वात्सल्य का बाना है/जघनतम नादान को भी/सोम बना देता है। किन्तु, यह लौकिक/चमत्कार की बात हुई,/शान्त-रस का क्या कहें, संयम-रत धीमान को ही/'ओम्' बना देता है । जहाँ तक शान्त रस की बात है