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240 :: मूकमाटी-मीमांसा
प्रतिशोध का भाव किस प्रकार जन्म-जन्मान्तर को दूषित कर देता है, इसको स्पष्ट करते हुए कवि कहता है :
"बदले का भाव वह अनल है / जो / जलाता है तन को भी, चेतन को भी भव-भव तक ! / बदले का भाव वह राहु है / जिसके सुदीर्घ विकराल गाल में / छोटा-सा कवल बन
चेतनरूप भास्वत भानु भो / अपने अस्तित्व को खो देता है ।" (पृ. ९८)
'बोध और शोध', जो कि द्वितीय खण्ड का मुख्य कथ्य है, कवि के शब्दों में :
" बोध के सिंचन बिना / शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है कि/शब्दों के पौधों पर / सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं, /... बोध का फूल जब
ढलता - बदलता, जिसमें / वह पक्व फल ही तो / शोध कहलाता है । बोध में आकुलता पलती है / शोध में निराकुलता फलती है, फूल से नहीं, फल से / तृप्ति का अनुभव होता है, / फूल का रक्षण हो और/ फल का भक्षण हो; / हाँ ! हाँ !! / फूल में भले ही गन्ध हो पर, रस कहाँ उसमें !/ फल तो रस से भरा होता ही है,
साथ-साथ / सुरभि से सुरभित भी!" (पृ. १०६ - १०७)
मन्त्र की शक्ति, मन की शक्ति का ही परिणाम है । अतः मन्त्र का शुभत्व अथवा अशुभत्व मन की स्थिति पर ही निर्भर है :
" मन्त्र न ही अच्छा होता है / ना ही बुरा / अच्छा, बुरा तो अपना मन होता है / स्थिर मन ही वह / महामन्त्र होता है / और अस्थिर मन ही / पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है, / एक सुख का सोपान है एक दुःख का सोपान है।” (पृ. १०८ - १०९)
आशा और आस्था के भेद को भी आचार्यश्री ने किस सरलता से स्पष्ट किया है :
“आँखों की पकड़ में आशा आ सकती है / परन्तु
आस्था का दर्शन आस्था से ही सम्भव है / न आँखों से, न आशा से ।" (पृ. १२१ )
विकृत और अविकृत ज्ञान के अन्तर का विश्लेषण कितनी सूक्ष्मता से किया है :
" ज्ञान का पदार्थ की ओर / ढुलक जाना ही / परम आर्त पीड़ा है, / और ज्ञान में पदार्थों का / झलक आना ही - / परमार्थ क्रीड़ा है ।" (पृ. १२४)
मुक्ति का पथिक, जो रूप की प्यास से परे है, श्रृंगार की उपासना कैसे कर सकता है :
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" जिसे रूप की प्यास नहीं है, / अरूप की आस लगी हो उसे क्या प्रयोजन जड़ शृंगारों से !” (पृ. १३९)