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मूकमाटी-मीमांसा :: 239
"जल जीवन देता है/हिम जीवन लेता है,/स्वभाव और विभाव में यही अन्तर है,/भले ही/हिम की बाहरी त्वचा/शीतशीला हो परन्तु, भीतर से/हिम में शीतलता नहीं रही अब!
उसमें ज्वलनशीलता/उदित हुई है अवश्य ।" (पृ. ५४) रस्सी और रसना के वार्तालाप के माध्यम से कवि ने ग्रन्थि और निर्ग्रन्थ दशा का अत्यन्त सरल शब्दों में साक्षात्कार कराया है:
"हमारी उपास्य-देवता/अहिंसा है/और/जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है/वहाँ निश्चित ही हिंसा छलती है।/अर्थ यह हुआ कि/ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है और निर्ग्रन्थ-दशा में ही/अहिंसा पलती है,/पल-पल पनपती,
"बल पाती है।" (पृ. ६४) युगबोध बाह्य घटना नहीं है अपितु आन्तरिक संघटना है। इसका चित्रण कवि ने अति ही सुन्दरता से किया है :
"सत्-युग हो या कलियुग/बाहरी नहीं/भीतरी घटना है वह सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा ! और/असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ
सत् को असत् माननेवाली दृष्टि/स्वयं कलियुग है, बेटा !" (पृ. ८३) ० "एक का जीवन/मृतक-सा लगता है/कान्तिमुक्त शव है,
एक का जीवन/अमृत-सा लगता है/कान्ति-युक्त शिव है।
शव में आग लगाना होगा,/और/शिव में राग जगाना होगा।” (पृ. ८४) इस महाकव्य के द्वितीय खण्ड-'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में कवि ने स्वभाव का वर्णन करते हुए कितनी सरलता से पुरुष और प्रकृति के सामंजस्य को उद्घाटित किया है :
"स्वभाव से ही/प्रेम है हमारा/और/स्वभाव में हो/क्षेम है हमारा। पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है।/और/अन्यत्र रमना ही भ्रमना है/मोह है, संसार है/...मन के गुलाम मानव की/जो कामवृत्ति है
तामसता काय-रता है/वही सही मायने में/भीतरी कायरता है !"(पृ.९३-९४) तन और मन के बल की विभेदक रेखा को भी कितनी मोहकता के साथ प्रस्तुत किया है :
"तन का बल वह/कण-सा रहता है/और/मन का बल वह/मन-सा रहता है यह एक अकाट्य नियम है।/...मन वैर-भाव का निधान होता ही है। मन की छाँव में ही/मान पनपता है/मन का माथा नमता नहीं न-'मन' हो, तब कहीं/नमन हो 'समण' को इसलिए मन यही कहता है सदा-/नम न ! नम न !! नम न !!!" (पृ.९६-९७)