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238 :: मूकमाटी-मीमांसा सौन्दर्य वर्णन में नारी के नख-शिख वर्णन का अभाव है तथा धरा के आन्तरिक सौन्दर्य का अद्भुत वर्णन है । यह भी महाकाव्यों की परम्परा से कुछ पृथक् है । (३) यह महाकाव्य नायिका प्रधान है जबकि प्रायः महाकाव्य नायक प्रधान होते हैं । (४) इस महाकाव्य की नायिका राजपुत्री या महारानी नहीं है वरन् जन-साधारण की प्रतीक मूकमाटी है । अत: यह महाकाव्य दलित, शोषित एवं मूक वर्ग की वेदना को मुखरित करने वाला प्रतिनिधि काव्य है । मूकमाटी के रूप में जन-साधारण की वेदना मुखरित हुई है-इससे यह काव्य महनीय हो उठा है।
सदुक्तियों का तो महासागर है यह महाकाव्य । कवि ने मुक्त छन्द में अर्थान्तरन्यास और दृष्टान्त अलंकार का बहुलता से प्रयोग किया है । उक्तियों की गम्भीरता "भारवेरर्थगौरवम्" का स्मरण दिलाती है। प्रत्येक खण्ड की कुछ कमनीय उक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं :
इस काव्य के प्रथम खण्ड - 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' में माटी की विशुद्ध रूप में परिणति वर्णित है । इस खण्ड में अति और इति के भेद को कमनीयता से प्रस्तुत किया गया है :
"अति के बिना/इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं/और/इति के बिना अथ का दर्शन असम्भव!/अर्थ यह हुआ कि/पीड़ा की अति ही
पीड़ा की इति है/और/पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है।" (पृ. ३३) भावों की निकटता ही प्राणियों में नैकट्य स्थापित करती है। क्षेत्रीय अथवा तन की दूरी रहने पर भी भावों का अथवा मन का सामीप्य प्राणियों में निकटता स्थापित करता है । गधे की पीर को माटी के द्वारा अनुभव करवाते हुए कवि कहता है:
"गदहे की पीठ पर/खुरदरी बोरी की रगड़ से/पीठ छिल रही है उसकी और/माटी के भीतर जा/और भीतर उतरती-सी/पीर मिल रही है। ...केवल क्षेत्रीय ही नहीं/भावों की निकटता भी/अत्यन्त अनिवार्य है इस प्रतीति के लिए।/यहाँ पर/अचेत नहीं/चेतना की सचेत-/रीत मिल रही है !
भावों की निकटता/तन की दूरी को/पूरी मिटाती-सी।" (पृ. ३४-३५) दया की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए तपस्वी कवि ने वासना और दया के भेद को अत्यन्त रमणीयता से स्पष्ट किया है :
"दया का होना ही/जीव-विज्ञान का/सम्यक् परिचय है।" (पृ. ३७) 0 "वासना का विलास.../...मोह है,/दया का विकास.../मोक्ष है
एक जीवन को बुरी तरह/जलाती है" भयंकर है, अंगार है ! एक जीवन को पूरी तरह/जिलाती है"/शुभंकर है, शृंगार है। हाँ ! हाँ !!/अधूरी दया-करुणा/मोह का अंश नहीं है/अपितु
आंशिक मोह का ध्वंस है।" (पृ. ३८-३९) 0 "वासना की जीवन-परिधि/अचेतन है"तन है/दया-करुणा निरवधि है
करुणा का केन्द्र वह/संवेदन धर्मा'चेतन है/पीयूष का केतन है।" (पृ. ३९) सन्त कवि ने स्वभाव और विभाव के पार्थक्य को दृष्टान्त अलंकार के माध्यम से अत्यन्त मनोहारी ढंग से समझाया है: