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'मूकमाटी' की मुखरता
डॉ. (श्रीमती) आशालता मलैया 'मूकमाटी' एक ऐसे शब्द शिल्पी की लेखनी से मुखरित हुई है, जिसका काव्य, तपस्यामय है तथा तपस्या, काव्यमय । प्रश्न उठता है-तपस्या और काव्य में क्या सम्बन्ध है ? जब तपस्या ही काव्य बन जाती है और काव्य ही तपस्या, तब तपस्या भी काव्यात्मक हो उठती है और काव्य भी तपस्यात्मक। इस तपस्यात्मक-काव्य' अथवा 'काव्यात्मकतपस्या' से जो कुछ प्रस्फुटित होता है, वह अद्भुत रूप से रमणीयमय भी होता है और तेजस्वी भी।
___'मूकमाटी' के रचयिता आचार्य विद्यासागर के रूप में हमें एक ऐसे कवि के दर्शन होते हैं जिसका सम्पूर्ण जीवन ही काव्यमय हो गया है। एक ऐसा योगी, जिसके लिए काव्य भी योग की साधना का एक अंग बन जाता है । एक ऐसा दार्शनिक, जो तर्क की रूक्षता में विचरण करते हुए भी सरसता की प्रतिमूर्ति है । एक ऐसा सन्त, जिसका अपना कुछ भी नहीं, लेकिन वह सभी का है।
___ "आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठ:"- उपनिषदों की यह उक्ति आचार्यश्री पर पूर्णत: चरितार्थ होती है । आत्मक्रीड़ योगी की आत्मरति से निष्पन्न कविता' मानवीय चेतना को ब्रह्मानन्द के अक्षय आयामों से परिचित कराने में नितान्त समर्थ होती है, क्योंकि उस ब्रह्मानन्द का दर्शन इन चर्म-चक्षुओं से तो सम्भव है नहीं :
"न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न, चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा हृदिस्थं मनसा य एवमेव विदूरममृतास्ते भवन्ति ॥" जो योगी, उस रूपरहित सौन्दर्य के चरम अधिष्ठान परम तत्त्व को जान लेता है, वह स्वयं 'अमृतमय हो जाता है और उस अमृतस्वरूप ब्रह्मवेत्ता के मुखारविन्द से जो 'काव्यधारा' प्रवाहित होती है, वह भी 'अमृता' हो जाती है।
'मूकमाटी' महाकाव्य तपस्वी कवि आचार्य श्री विद्यासागरजी की शान्त रस से अनुप्राणित अद्भुत कृति है । जब तपःपूत लेखनी से काव्य प्रसूत होता है तो वह साधना की आराधना का परिपाक होता है । वास्तविक 'काव्यसाधना' तो उस कवि की ही हो सकती है, जिसका तन, मन एवं वचन-सब कुछ अन्तः एवं बाह्य तप से परिपूत हो उठा हो।
'मूकमाटी' ४८८ पृष्ठों में निबद्ध एक ऐसा महाकाव्य है जिसका प्रत्येक शब्द अ-शब्द की स्थिति का अनुभव कराने वाला है । शब्द से अ-शब्द का बोध ही सत्काव्य का लक्षण है और 'मूकमाटी' अपने इस लक्ष्य में पूर्णत: सफल है।
चार खण्डों में विभाजित इस महाकाव्य की नायिका 'माटी' है । इसमें आचार्यश्री ने नारी के कामिनी' अथवा 'रमणी' रूप का चित्रण नहीं किया है अपितु माटी को 'जननी' और 'धरणी' के रूप में चित्रित किया है। इसमें नारी के उपासनामय व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा हुई है।
यह नायिका प्रधान महाकाव्य है। इसका नायक कौन है- शिल्पी, सेठ अथवा निर्ग्रन्थ मुनि ? यह स्पष्ट नहीं हो पाता । धरा के मातृत्व रूप की प्रतिष्ठा तथा मूकमाटी का साधना की अग्नि में तपकर कुम्भ में परिवर्तित हो जाना, एक अद्भुत कथ्य को जन्म देता है जिसमें नायिका शनैः-शनैः नायक का रूप धारण कर लेती है।
शान्त रस के महासागर में अवगाहन कराने वाला यह महाकाव्य कई दृष्टियों से विशिष्ट है- (१) शृंगार अथवा वीर रस इसका अंगीरस नहीं है, जबकि महाकाव्य प्रायः शृंगार अथवा वीर रस प्रधान होते हैं । (२) नारी के