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आध्यात्मिक चेतना का ऊर्वीकरण : ‘मूकमाटी'
डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन 'मूकमाटी' प्राचीन भारतीय, पाश्चात्य एवं आधुनिक महाकाव्य के निर्धारित लक्षणों के साँचे में न समा सकने वाला एक सर्वथा अभिनव प्रयोग है । यह अपनी मूल और अन्तिम चेतना में एक अध्यात्मप्रधान काव्य है । इसके विस्तार, गाम्भीर्य, वैविध्य, दूरान्वय एवं वैचित्र्य को देखकर यह कहना पर्याप्त कठिन हो जाता है कि इसे महाकाव्य, खण्डकाव्य, चम्पूकाव्य या फिर किसी अन्य संज्ञा से अभिहित किया जाए। मुझे लगता है कि यह काव्य अपने आप में एक 'क्लासिक' है और किसी प्रचलित नाम का मुहताज नहीं है।
___ 'मूकमाटी' अविकसित आत्मा के अनथक संघर्ष द्वारा विशुद्ध होकर परमात्मत्व की चिर प्राचीन और चिर नवीन गाथा है । यह काव्य चार खण्डों में विभाजित है । प्रथम खण्ड सिद्धान्त स्थापना अर्थात् विश्वास मूलक सम्यग्दर्शन का है । यह दूसरे खण्ड के लगभग पूर्वार्ध तक चलता है । द्वितीय खण्ड का उत्तरार्ध एवं तृतीत खण्ड सम्यग्ज्ञान अर्थात् बोधकोटि की स्थापना और विस्तार का है । चतुर्थ खण्ड सम्यक् चारित्र अर्थात् तपस्या, संघर्ष एवं सम्पूर्ण साधना का है। यही मोक्ष मार्ग है । मूकमाटी (आत्मा) एक सांगरूपक के रूप में प्रस्तुत है । आत्मा के उद्धार में कुम्भकार (गुरु) को एक महत्त्वपूर्ण निमित्त कारण माना गया है । वस्तुत: उसे स्वयं ही सब कुछ करना है।
यह काव्य वस्तु के आधार पर उखड़ा-उखड़ा-सा लगता है, लोक चेतना की सजीव अन्विति का व्यापक संस्पर्श भी नहीं करता। काँटा.गदहा और मच्छर जैसे पात्रों और प्रसंगों से पाठक का तादात्म्य भी सम्भव नहीं हो पाता. अपितु एक ऊब एवं बेचैनी उठती है । इसी प्रकार अनेक शब्दों के अविश्वसनीय, अप्रामाणिक एवं चमत्कारी और अटकल भरे तोड़-मरोड़ से भी काव्य प्राय: चित्र-काव्य की कोटि में चला जाता है। कवि के अनेक प्रसंग सहजता की उपज न होकर एक ऊहा की सन्तान प्रतीत होते हैं। निर्मापक समीक्षक (Constructive Critic) को भी अनेक उखड़े और असम्बद्ध प्रसंगों को प्राय: ज़बरदस्ती तारतम्य के साथ जोड़कर अर्थान्विति या भावान्विति बैठानी पड़ती है । इस सारे कथन के लिए उदाहरण चुनने की, छाँटने की आवश्यकता नहीं पड़ती; क्योंकि ये अनायास सर्वत्र प्राप्त होते हैं।
इतनी स्पष्ट एवं खटकने वाली परिसीमाओं के बावजूद इस काव्य में रस, लोक-चेतना का उन्नयन, किसी जाति का, व्यक्ति का लोकोत्तर यशोवैभव अथवा संघर्ष जैसा कुछ है क्या ?
उत्तर में मैं इतना ही कहूँगा कि जहाँ संसार के समस्त संघर्ष समाप्त हो जाते हैं, वहाँ यह काव्य उगता हैविकसित होता है और फलित होता है । इसकी फलश्रुति यही है कि यह काव्य मानव की आध्यात्मिक चेतना के ऊर्वीकरण में विचरण करता है । इस विराट् चेतना-लक्ष्य के कारण इस काव्य की अनेक नगण्य सीमाएँ पर्याप्त हलकी एवं मूल्यहीन लगती हैं। एक आध्यात्मिक सन्त से सांसारिक उतार-चढ़ाव के सर्कस की आशा करना भी उचित नहीं है।
मानव-स्वभाव अभ्यस्त या फिर तदनुरूप के क्रियाकलापों एवं भाव-भंगिमाओं का आदी होता है और उसी में उसका मनोरंजन भी होता है । अत: यह काव्य पहली पकड़ में एक झटके का (shock treatment) का काम करता है, पर धीरे-धीरे धैर्य होने पर, अपना पुरजोर असर करता है।
मेरा निवेदन है कि तट पर मोती नहीं मिलेंगे, गहरे पानी पैठना होगा।