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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 235 जीत, आवाज़, स्टार-वार, निब (NIB) आदि । भाषा की विशिष्ट शाब्दिक व्यंजना 'मूकमाटी' में मिलती है । नारी, दुहिता, अबला, साहित्य, कृपाण, नियति आदि शब्दों की विशिष्ट परिभाषाएँ प्रस्तुत की गई हैं। उदाहरण के लिए 'नियति' शब्द देखिए : " 'नि' यानी निज में ही/'यति' यानी यतन-स्थिरता है अपने में लीन होना ही नियति है।" (पृ. ३४९) मुहावरे काव्य की सम्प्रेषणीयता को और अधिक सशक्त बनाते हैं। 'मूकमाटी' में मुहावरों का अच्छा प्रयोग हुआ है : 'कड़वी यूंट पीना' (पृ. ५१), 'नव-दो-ग्यारह होना' (पृ. ३९७), 'टेढ़ी खीर' (पृ. २२४), 'आँखें लगना' (पृ. ३६०), 'आग-बबूला होना' (पृ. ३६४), 'होठ चबाना' (पृ. ४२७), 'तिलमिलाना' (पृ. ३७९)। 'मूकमाटी' में मुक्त छन्दों का प्रयोग ही हुआ है । दोहा (पृ. ५०-५१ एवं ३२५), वसंततिलका (पृ. १८५) के एक-दो प्रसंगों के अतिरिक्त पारम्परिक छन्दों का प्रयोग विद्यासागरजी ने नहीं किया है । छन्द के सम्बन्ध में वे स्वयं काव्य में एक स्थान पर कहते हैं : "दाह की स्वच्छन्दता छिन्न-भिन्न हुई/इस सफल प्रयोग से । कवि के स्वच्छ-भावों की स्वच्छन्दता-ज्यों/तरह-तरह के छन्दों को देखकर अपने में ही सिमट-सिमट कर/मिट जाती है, आप!" (पृ. ४०८) तथापि कुछ स्थानों पर उन्होंने सममात्रिक, अर्धसम मात्रिक एवं विषम मात्रिक छन्दों का भी प्रयोग किया है। निम्नांकित छन्द में १६-१६ मात्राएँ प्रत्येक चरण में देख सकते हैं : "वही छल-छल वही उछाल है/क्रूर काल का वही भाल है वही नशा है वही दशा है/कॉप रही अब दिशा-दिशा है।" (पृ. ४५६) उपसंहार के रूप में हम यही कह सकते हैं कि अधिकांश प्रबन्ध काव्यों की कथावस्तु ऐतिहासिक या पौराणिक है। परन्तु, 'मूकमाटी' इस दृष्टि से परम्परा का पालन नहीं करती है। इसमें धर्म, दर्शन और अध्यात्म विषय को वस्तु के रूप में ग्रहण कर उसे महाकाव्य का रूप दिया गया है। पर प्रबन्ध सम्बन्धी प्राचीन मान्यताओं का निराकरण इसमें देख सकते हैं। प्रत्येक खण्ड के लिए नाम दिए गए हैं। काव्य का आरम्भ मंगलाचरण से नहीं हुआ है। विभिन्न छन्दों का प्रयोग नहीं हुआ है । काव्य का नायक महापुरुष या राजा या उत्तम क्षत्रिय नहीं, बल्कि निम्नवर्गीय माटी है । सब अंशों में यह काव्य एक अभिनव महाकृति है। काव्य-रचना के पीछे जिन समसामयिक समस्याओं को सुलझाने का उद्देश्य रहता है, वह 'मूकमाटी' में है। इसमें मानव की विभिन्न समस्याएँ-युद्ध, राजनीति, कला का वास्तविक प्रयोजन, इन सबसे बढ़ कर मानव को सच्चे आध्यात्मिक धरातल पर पहुँचाना-इस काव्य का उद्देश्य रहा है। जैन धर्म, दर्शन की मीमांसा भी इसमें की गई है। श्रमण के लक्षण प्रस्तुत किए गए हैं। सकल परमात्मा को भगवान् के रूप में स्वीकारना जैन दर्शन का मूल है। कुम्भ में सन्त श्रमण के दर्शन होना इसका परिचायक है : “कुम्भ के विमल-दर्पण में/सन्त का अवतार हुआ है" (पृ. ३५४) । यह दर्शन, यह धार्मिक तत्त्व सहज ही काव्य के प्रसंग और परिवेश से उद्घाटित हुए हैं । अन्त में कह सकते हैं कि 'मूकमाटी' एक सार्थक सृजनात्मक प्रयास है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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