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234 :: मूकमाटी-मीमांसा
२. उपमा अलंकार :
"आलसी नहीं, निरालसी लसी ।" (पृ. २७८ ) - ( अन्त्यानुप्रास)
मूर्त प्रस्तुत के लिए मूर्त अप्रस्तुत :
३.१ उत्प्रेक्षा :
"नीरज की बन्द पाँखुरियों-सी/शिल्पी की पलकों को सहलाता है । " (पृ. २६५)
मूर्त प्रस्तुत के लिए मूर्त अप्रस्तुत :
"लक्ष्मण की भाँति उबल उठा / आतंक फिर से !" (पृ. ४६७)
" आज का यह दृश्य / ऐसा प्रतीत हो रहा है, कि / ग्रह-नक्षत्र - ताराओं समेत रवि और शशि / मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा दे रहे हैं ।” (पृ. ३२३)
३.२ हेतूत्प्रेक्षा : यह प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त है :
“यद्यपि इनका नाम पयोधर भी है, / तथापि / विष ही वर्षाते हैं वर्षाऋतु में ये अन्यथा, / भ्रमर-सम काले क्यों हैं ?" (पृ. २३०)
४. रूपक अलंकार : प्रस्तुत - अप्रस्तुत
की अभेदता कुछ नई है :
“आकाश के स्वच्छ सागर में / स्वच्छन्द तैरने वाले ।” (पृ. ४६५) ५. अर्थान्तरन्यास : इसका सहज एवं अद्भुत प्रयोग देखिए :
"यह कटु सत्य है कि / अर्थ की आँखें / परमार्थ को देख नहीं सकतीं, अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को / निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२)
६. मानवीकरण : पाश्चात्य अलंकारों में मानवीकरण का प्रयोग समूचे काव्य में छाया हुआ है। माटी, झारी, बादल, रस्सी, सागर आदि पात्रों का चित्रण मानवीकरण के माध्यम से हुआ है। उदाहरण देखिए :
" बाल - भानु की भास्वर आभा / निरन्तर उठती चंचल लहरों में उलझती हुई-सी लगती है/कि / गुलाबी साड़ी पहने / मदवती अबला - सी स्नान करती - करती / लज्जावश सकुचा रही है।" (पृ. ४७९)
७. ध्वन्यार्थ : व्यंजना में ध्वनियों के द्वारा अर्थ की व्यंजना होती है :
“खदबद खदबद/खिचड़ी का पकना वह / अविकल चलता ही रहा।" (पृ. ३६२)
इस प्रकार 'मूकमाटी' में सभी प्रकार के अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है ।
• भाषा अभिव्यक्ति का अप्रतिम साधन है। यह विषय को संवेद्य बनाती है। 'मूकमाटी' में भी सशक्त भाषिक विधान को अपनाया गया है। इसमें तत्सम शब्दों की बहुलता है। फिर भी, तद्भव एवं विदेशी शब्दों का प्रयोग भी मिलता है । विशिष्ट शाब्दिक अभिव्यंजना इस काव्य की विशेषता है । कुछ उदाहरण निम्नांकित हैं :
१. तत्सम : चन्द्र, रात्रि, मार्दव, आम्रक, लज्जा, अस्मिता, दुग्ध, ऊर्ध्व आदि ।
२. तद्भव : धूम, रात, सूरज, लाज, आँख, हाथ आदि ।
३. विदेशी : (अरबी, फारसी व अँग्रेजी) - ताजा, ग़म, दुआ, बेशक़, माहौल, जवाब, शुरूआत, असरदार,