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मूकमाटी-मीमांसा :: 231 "रणभेरी सुनकर/रणांगन में कूदने वाले/स्वाभिमानी स्वराज्य-प्रेमी
...कई जलकणों को, बस/सोखते जा रहे हैं।" (पृ. २४३) आजकल की राजनीति के सम्बन्ध में कवि ने कहा है कि यह अपराधियों को बचाने के लिए काम कर रही है। देखिए :
"प्राय: अपराधी-जन बच जाते/निरपराध ही पिट जाते,/और उन्हें पीटते-पीटते टूटती हम ।/इसे हम गणतन्त्र कैसे करें ?
यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है/या/मनमाना 'तन्त्र' है !" (पृ. २७१) 'मूकमाटी' में वस्तुशिल्प के अन्तर्गत प्रकथनात्मकता, वर्णनात्मकता, नाटकीयता, भावतत्त्व और वैचारिक तत्त्व भी पाए जाते हैं। प्रकथनात्मकता के बिना प्रबन्ध का अस्तित्व सम्भव नहीं है । भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्र में इस अंश पर अधिक बल दिया गया है। आधुनिक प्रबन्धों में यह तत्त्व क्षीण पड़ गया है। फिर भी 'मूकमाटी' में इसका उपयोग हुआ है :
"धरती में गड़ी लकड़ी की कील पर/हाथ में दो हाथ की लम्बी लकड़ी ले अपने चक्र को घुमाता है शिल्पी।/फिर/घूमते चक्र पर/लौंदा रखता है माटी का
लौंदा भी घूमने लगता है।" (पृ. १६०) वर्णनात्मकता कथानक को पुष्ट बनाता है। 'मूकमाटी' में वर्णन के महत्त्व को स्वीकारा गया है। प्रकृति का वर्णन देखिए:
“सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई,
और "इधर "नीचे/निरी नीरवता छाई।" (पृ. १) प्रबन्ध काव्यों में नाटकीय तत्त्व अवश्य पाए जाते हैं। पात्रों की वैयक्तिकता पर प्रकाश डालने के लिए आज इस तत्त्व का उपयोग हो रहा है । संवाद, स्वगत भाषण इसके अन्तर्गत आते हैं। कुम्भ और झारी के बीच संवाद देखिए :
“अग्नि-परीक्षा के बाद भी/सब कोयलों में बबूल के कोयले काले भी तो होते हैं/वह क्यों ? बता दो!
लो, उत्तर देती है झारी :/अरे मतिमन्द, मदान्ध, सुन !" (पृ. ३७४) आज के प्रबन्धों में भावात्मकता कम देखने को मिलती है । वैचारिक प्रवृत्ति ज़्यादा हो गई है। 'मूकमाटी' में भी भावात्मकता कम है । समूचे काव्य में विचार तत्त्व भरपूर है । फिर भी, भावात्मकता निम्नांकित उद्धरण में देख सकते हैं:
"माटी के पावन चरणों में...!/फिर/फूट-फूट कर रोती है/उसकी आँखें
संवेदना से भर आती हैं/और/वेदना से घिर आती हैं।" (पृ. ८०-८१) विचार तत्त्व देखिए :