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महाकाव्य 'मूकमाटी' : एक सार्थक सर्जनात्मक प्रयास
शेख अब्दुल वहाब
कविता के युग में धर्म, दर्शन और अध्यात्म क्षेत्र के साथ-साथ साहित्य के क्षेत्र में भी अप्रतिम योगदान देने वाले आचार्य श्री विद्यासागर कवि एवं दार्शनिक सन्त के रूप में सुविख्यात हैं । प्रवचन ग्रन्थों के अतिरिक्त आधुनिक युगीन विविध समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने हेतु प्रबन्ध कृतियों का प्रणयन भी इन्होंने किया है। प्रस्तुत 'मूकमाटी' महाकाव्य इसी महोद्देश्य से अर्थात् धर्म, दर्शन, अध्यात्म को सही अर्थों में समझाने के लिए लिखा गया है ।
'मूकमाटी' को महाकाव्य की संज्ञा दी गई है ( 'प्रस्तवन, II) | परन्तु, प्रबन्ध की पारम्परिक परिभाषा है: "जो बन्ध सहित हो अर्थात् जिस काव्य में श्रृंखलाबद्ध रूप में किसी वस्तु का वर्णन हो उसे प्रबन्धकाव्य कहते हैं ।' आचार्य विश्वनाथ, दण्डी आदि से लेकर हिन्दी के आचार्य शुक्ल तक अनेक विद्वानों ने प्रबन्ध के विषय में अपने मत व्यक्त किए हैं । चूँकि आधुनिक काल में परम्परा का विद्रोह हुआ और हो रहा है, अतः नई कविता तक आते-आते प्रबन्ध का स्वरूप बदल गया है। विषयवस्तु से लेकर अप्रस्तुतों के चयन तक सबमें परिवर्तन आया है । 'मूकमाटी' में विषयवस्तु से लेकर नायक अर्थात् पात्र परिकल्पना तक परम्परा का विद्रोह है । इसमें सब नयापन है । इसलिए प्रस्तुत 'मूकमाटी' काव्य को अभिनव काव्य स्वीकार करते हैं। आज के सन्दर्भ में पारम्परिक 'महाकाव्य' शब्द भी वैसे उचित नहीं लगता है।
'मूकमाटी' काव्य की वस्तु ऐतिहासिक अथवा पौराणिक नहीं है। जैन धर्म, दर्शन और अध्यात्म विषय को वस्तु के रूप में ग्रहण कर लिया गया है। इसमें मिट्टी को केन्द्रीय पात्र बनाकर उसके द्वारा काव्योपलब्धि कराई गई है। कुम्भकार के हाथों में एक कुम्भ का रूप धारण कर माटी भक्त सेठ के परिवार से मिलकर उनका पथ-प्रदर्शन करती है । अज्ञानान्धकार में डूबे स्वर्ण कलश, चम्मच, सागर, केसर, स्फटिक झारी, अनार रस आदि को धर्म का वास्तविक अर्थ समझाती है। उन्हें ज्ञानोदय कराती है। आतंकवाद से परिवार को बचाकर अनन्तवाद के दर्शन कराती है।
"लो, अब हुआ ""/ नाव का पूरा डूबना / आतंकवाद का अन्त / और अनन्तवाद का श्रीगणेश !" (पृ. ४७७-४७८)
इस प्रकार 'मूकमाटी' काव्य की वस्तु काल्पनिक है। इस काल्पनिक वस्तु में कवि ने युग जीवन को सम्पाद किया है । कवि, मनुष्य की तरह सामाजिक प्राणी है। वह समाज से प्रेरणा ग्रहण करता है। 'मूकमाटी' भी आज के युग परिवेश से प्रभावित है । युग-जीवन की बातें कृति में किसी न किसी रूप में प्रस्फुटित होती हैं । पृथक्वाद या पृथकतावाद पर 'मूकमाटी' में विचार किया गया है, जो आज की ज्वलन्त समस्या है :
“माना ! / पृथक्-वाद का आविर्माण होना / मान का ही फलदान है ।” (पृ. ५५)
'ही' व 'भी' बीजाक्षरों के द्वारा भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता का परिचय दिया गया है। यहाँ 'ही' तुच्छ यानी कुछ नहीं और 'भी' सब कुछ है, के द्योतक हैं :
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'ही' पश्चिमी सभ्यता है / 'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता । रावण था 'ही' का उपासक / राम के भीतर 'भी' बैठा था ।” (पृ. १७३)
भारत के सैनिकों की देश-भक्ति को उजागर करते हुए कहते हैं :