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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 229 बादल का क्रोधोत्पन्न वार्तालाप जारी रहता है, बीच में वह समुद्र को समझाने के स्वर धारण करता है और कहता है: "अरे, अब तो/सागर का पक्ष ग्रहण कर ले, कर ले अनुग्रह अपने पर,/और,/सुख-शान्ति-यश का संग्रह कर ! अवसर है,/अवसर से काम ले!/अब, सर से काम ले ! अब "तो"छोड़ दे उलटी धुन/अन्यथा, 'ग्रहण' की व्यवस्था अविलम्ब होगी।" (पृ. २३१-२३२) कलमकार चतुर चितेरे हैं, वे जानते हैं कि सूरज को क्या दण्ड उपयुक्त हो सकता है। कोई उसे न जला सकता है, न बुझा सकता है। अत: उन्होंने उसके आभामण्डल (यश) को कलंकित करने की सजा ठीक मानी। यश कलंकित कैसे हो ? जब उसमें 'ग्रहण' लग जाए । वह लगा भी। प्रकृति का यह चित्रण, हाँ ऐसा चित्रण, हरेक कलमकार के लिए सम्भव प्रतीत नहीं होता। यह तो महाकवि आचार्य विद्यासागर के वश की ही बात है। रचनाकार ने किसी भी स्थल पर प्रकृति सापेक्ष-सत्य को अनदेखा नहीं किया, परन्तु देखना वहाँ ही चाहा है, जहाँ जरूरी लगा है। ___ इसी तरह खण्ड चार में मात्र दो जगहों पर उन्हें प्रकृति का चित्रण आवश्यक लगा है। प्रथम वहाँ, जहाँ सन्ध्यावन्दन करने के उपरान्त कुम्भकार कक्ष से बाहर आता है और उसे दृश्य देखने मिलता है : "प्रभात-कालीन सुनहरी धूप दिखी/धरती के गालों पर ठहर न पा रही है जो।” (पृ. २९४) __ प्रकृति-चित्रण का, महाकाव्य में यह अन्तिम स्थल है, यहाँ गुरुवर विद्यासागरजी बाढ़ से उफनती नदी के विषय में कलम चलाते हैं : “वर्षा के कारण नदी में/नया नीर आया है नदी वेग-आवेगक्ती हुई है/संवेग-निर्वेग से दूर उन्माद-वाली प्रमदा-सी!" (पृ. ४४०) नदी को नारी के रूप में देखने के बाद, उसमें संवेग और निर्वेग को तलाशना और न पाना, मुनि विद्यासागर जैसे महाकवि ही स्पष्ट कर सकते हैं। एक मायने में महाकाव्य के हरेक स्थल पर, जहाँ भी चित्रण है प्रकृति का, मुनिवर ने वहाँ प्रकृति सौन्दर्य के बोध को स्थापित करते हुए भी अध्यात्म का रंग फीका नहीं होने दिया है। उन्होंने आँख मूंद कर या आँख खोलकर चित्रण नहीं किए हैं, हर चित्रण के पार्श्व में कलमकार अपनी अनुभूति उपस्थित करने का सुन्दर प्रयास करता है, जबकि सत्य यह भी है कि दिगम्बर सन्त को ऐसी अनुभूतियों से कोई सरोकार नहीं रहा है, न रहेगा। मैं उन्हें प्रकृति-चित्रण में सिद्धहस्त मानता हूँ और उनके चित्रण की सराहना करता हूँ।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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