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228 :: मूकमाटी-मीमांसा
इतनी दिव्य है वह उनकी प्रथम बदली। प्रथम के पीछे-पीछे चल (उड़) रही दूसरी बदली, जो मध्य में है, का वर्णन पृथक् है :
"इससे पिछली, बिचली बदली ने/पलाश की हँसी-सी साड़ी पहनी गुलाब की आभा फीकी पड़ती जिससे/लाल पगतली वाली लाली-रची
पद्मिनी की शोभा सकुचाती है जिससे ।" (पृ. २००) बदलियाँ बदलियाँ न हुईं, तीन अल्हड़ सहेलियाँ हो गई हैं यहाँ, जिनके शृंगार और छवि पृथक् होते हुए भी वे एक साथ चल रही हैं। तीसरी बदली का प्रकृति-चित्रण भी कम नहीं है, जब कवि लिखता है :
"नकली नहीं, असली/सुवर्ण वर्ण की साड़ी पहन रखी है
सबसे पिछली बदली ने।” (पृ. २००) बदलियों का वर्णन कर तरुणियों के रूप-लावण्य को उपस्थित करता हुआ कवि अपनी उस दृष्टि का परिचय व प्रभाव यहाँ पूर्ण बारीकी से करा देता है, जो प्रकृति के दृश्य देखने में अतिरिक्त क्षमताएँ धारण किए हुए है।
___इसी पृष्ठ पर कवि ने सूर्य और धूप का नूतन रिश्ता तय कर दिया है, वे प्रभा (धूप) को प्रभाकर की प्रेयसि पहले ही मान चुके हैं, अब वे उसे पत्नी मानकर कलम चलाते हैं :
"प्रभाकर की प्रभा को प्रभावित करने का!" (पृ. २००) बाद में कवि प्रभाकर और प्रभा के रिश्ते को भी नाम देता हुआ लिखता है :
"अपनी पत्नी को प्रभावित देख कर/प्रभाकर का प्रवचन प्रारम्भ हुआ।" (पृ.२००) प्रकृति-चित्रण की ये कल्पनाएँ सहज नहीं हैं, इन्हें कागज पर उतारने में रचनाकार को कल्पना के हिमालय जितनी ऊँचाई स्पर्श करनी पड़ी होगी।
पूरे ग्रन्थ में एक विचित्र सन्दर्भ भी देखने मिला है, जब कलमकार का एक पात्र 'बादल' विशाल समुद्र का पक्ष लेते हुए सूरज को डाँट पिलाता है । चूँकि कलमकार का आशय ही बादल और सूरज की बातचीत सुनने-सुनाने का है, इसलिए इस दृश्य को मैं प्रकृति-चित्रण में ही समाहित पा रहा हूँ, क्योंकि सूर्य एक प्राकृतिक तत्त्व है, उसका उदय और अस्त प्राकृतिक है, उसका तपना भी प्राकृतिक है। इसी तरह बादल-दल भी प्राकृतिक है। कवि ने सीधा-सीधा सूर्य को नहीं डाँटा, कथा के एक पात्र ने उस पर कोप उतारा है, जब बादल नक्षत्रों के मध्य अपने पाण्डित्य का डंका बजाते हुए उनके वरिष्ठ पण्डित दिवाकर को आड़े हाथ लेता है :
"अरे खर प्रभाकर, सुन !/भले ही गगनमणि कहलाता है तू, सौर-मण्डल देवता-ग्रह-/ग्रह-गणों में अग्र तुझमें व्यग्रता की सीमा दिखती है/अरे उग्रशिरोमणि ! तेरा विग्रह "यानी/देह-धारण करना वृथा है ।/कारण, कहाँ है तेरे पास विश्राम-गृह ?/तभी "तो/दिन भर दीन-हीन-सा दर-दर भटकता रहता है !/फिर भी/क्या समझ कर साहस करता है सागर के साथ विग्रह-संघर्ष हेतु ?" (पृ. २३१)