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226 :: मूकमाटी-मीमांसा
किसी बड़ी मिल से निर्मित साड़ियाँ तो कहीं न कहीं देखने को मिल जाती हैं, परन्तु इधर 'प्रभात' ने 'रात्रि' को, भेंट में जो साड़ी दी है, वह मात्र आचार्यश्री की मिल में ही बनती है । वे दिगम्बर साधु, सवस्त्र कवियों की कल्पना से सैकड़ों मील आगे चलते मिलते हैं, जब वे कहते हैं :
"उपहार के रूप में/कोमल कोंपलों की/हलकी आभा-धुली
हरिताभ की साड़ी/देता है रात को।" (पृ. १९) . सूती और रेशमी साड़ी से लेकर बनारसी साड़ी तक, साड़ियों की शताधिक प्रजातियाँ और प्रकार देखे हैं, पर 'मूकमाटी' के महाकवि ने हरिताभ की साड़ी प्रकाश में लाकर अब तक के कल्पनाश्रित कवियों के समक्ष नव आदर्श तो रखा ही है, नूतन सर्जना को नया फ्रेम (चौखट) भी प्रदान किया है।
सत्य तो यह है कि ऐसे प्रसंगों के चित्र कोई तूलिकाकार अपनी तूलिका से केनवास पर उतार ही नहीं सकता । ये तो काव्यलोक में घुमड़ने वाले ऐसे दृश्य हैं जिन्हें कवि की कृपा से पाठक अपनी अनुभूति में ला सकता है, पर ड्राइंग रूप में सर्व साधारण के अवलोकनार्थ टाँग नहीं सकता।
इतना ही नहीं मूकमाटी' का कवि ओस के कणों में "उल्लास-उमंग/हास-दमंग और होश' (पृ. २१) के दर्शन भी करता है । भला ऐसी कल्पनाओं के चित्र मृत तूलिका कैसे बना सकेगी, उसके लिए तो जीवन्त विचार ही सहायक हो सकते हैं कवि के।
बोरी में भरी हुई माटी कैसी या किस आकार में दिख सकती है, कौन बताए ? परन्तु हमारे कवि ने वहाँ भी अपनी मधुर कल्पना को नवाकार देकर सफलता पाई है । वे कहते हैं :
"सावरणा - साभरणा/लज्जा का अनुभव करती,
नवविवाहिता तनूदरा/यूँघट में से झाँकती-सी!" (पृ. ३०) बोरी के झूट, छोर तक माटी भर जाने के बाद वह कैसे दिखती है कवि को ? उपमा का चमत्कार यहाँ देखने मिलता है, वह है - 'तनूदरा' । अश्लीलता या वासना के स्वर से दूर है यह एक सुन्दर उपमा।
जिस तरह लेखक अपनी रचना से वार्ता कर लेता है उसी तरह उनका पात्र शिल्पी भी माटी से बातचीत करता है, मगर कवि ने बातचीत को इतनी जीवन्तता प्रदान कर दी है कि माटी एक महानायिका की तरह पाठकों के मस्तिष्क में प्रवेश करती है, जब शिल्पी मिट्टी से पूछता है :
"सात्त्विक गालों पर तेरे/घाव-से लगते हैं,/छेद-से लगते हैं, सन्देह-सा हो रहा है/भेद जानना चाहता हूँ
यदि "कोई "बाधा "न"हो"तो"/बताओगी/चारु-शीले !"(पृ. ३१) यहाँ कविता में नहीं, चित्रण का चमत्कार शिल्पी के प्रेम भरे सम्बोधन में है, जब वह पूछता है-बताओगी, 'चारुशीले' । यह 'चारु-शीले' शब्द पाठक के मस्तिष्क के तार झनझना देने तक भीतर कौंधता रहता है और शब्द की गरिमा और सौन्दर्य के बोध को किसी सुन्दर रूप में तलाशने लग जाता है अपने ही परिचय में आए किसी रूप में।
सूर्य का उदय एक प्राकृतिक घटना है, जो नित्य होती है। सूर्य के कारण धूप का प्रसारण भी प्राकृतिक है। सूर्य और धूप के मध्य कोई प्राकृतिक रिश्ता भी है क्या ? हम तो नहीं जानते थे, पर कलमकार ने उसे स्पष्ट करने का सत् प्रयास किया है:
"दिनकर अपनी अंगना को/दिन-भर के लिए