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मूकमाटी-मीमांसा :: 225 यहाँ 'लज्जा का घूँघट' पंक्ति पाठक को गुदगुदी पैदा करती है, फिर 'डूबती-सी कुमुदिनी' पाठक के समीप ही वह (नायिका) है, का आभास कराती है। 'प्रभाकर के कर- छुवन से' सूर्य की किरणों के द्वारा स्पर्श किया जाना दूर की बात लगती है, पाठक ही हाथ से स्पर्श कर रहा हो - लगता है । अन्तिम पंक्ति 'पाँखुरियों की ओट देती है' जैसे किसी सुन्दर सलौनी युवती ने दोनों हथेलियों से अपना मुख - चन्द्र छुपाने का सुकोमल प्रयास किया हो ।
यो सम्पूर्ण काव्य, जो ४८८ पृष्ठों में है, में आचार्यश्री ने स्थल व्यवस्था और परिवेश-प्रस्थान को ध्यान में रख कर, मात्र अठारह जगहों पर प्रकृति चित्रण आवश्यक समझा है, जिसमें उनका कवि शृंगारिक दृष्टि धारण कर कुछ देखता चलता है ।
इसे और अधिक स्पष्ट करूँ कि कई दृश्य महाकवि खुद तो देखते हैं, किन्तु पाठकों को नहीं देखने देते, बल्कि उन (दृश्यों) के आनन्द का खुलासा पाठकों से शब्दों के माध्यम से कर, आगे बढ़ जाते हैं, जैसा कि उनने उपर कहा है'पाँखुरियों की ओट' ।
महाकाव्य के प्रारम्भिक अंश में ही ये पंक्तियाँ- "न निशाकर है, न निशा / न दिवाकर है, न दिवा" (पृ.३) दिन और रात के मध्य आने वाले एक ऐसे सन्धिकाल की भनक देती हैं जिसे केवल रचनाकार ने देखा - जाना है, और उसी के कथनानुसार पाठक एक चित्र आँखों में बनाने का सुन्दर प्रयास कर लेने में सफल हो जाता है ।
कवि कल्पनाशीलता का प्रथम संस्थापक पुरुष होता है, वह ही हैं हमारे आचार्यश्री । वे धरती माता के चेहरे का वर्णन कर नए कीर्तिमान स्थापित कर देते हैं, जब कहते हैं :
“जिसके / सल-छलों से शून्य / विशाल भाल पर गुरु- गम्भीरता का / उत्कर्षण हो रहा है, / जिसके
दोनों गालों पर / गुलाब की आभा ले / हर्ष के संवर्धन से
दृग - बिन्दुओं का अविरल / वर्षण हो रहा है।" (पृ. ६)
यह प्यारा दृश्य भी पाठक सीधा-सीधा नहीं देखता, उसे कलमकार अपने शब्दों के माध्यम से दिखलाता है । कहें, बात नायिका रूप की या माता रूप की । कवि ने कुछ स्थलों पर अपने सन्तुलित शब्दों को माध्यम बनाकर दृश्य का आभास कराया है, दृश्य की सर्जना किए बगैर, मात्र अपने वर्णन वैभव के सहारे ।
वे, आगे, प्रभात का परिचय कराने में भी भाषा और व्याकरण से परे, मात्र कल्पना के बल पर भारी सफलता पाते हैं, जब लिखते हैं :
" प्रभात आज का / काली रात्रि की पीठ पर
हलकी लाल स्याही से / कुछ लिखता - सा है, कि यह अन्तिम रात है ।” (पृ. १९)
यहाँ प्रभात के द्वारा रात्रि की पीठ पर कुछ लिखना पाठक के आनन्द को कई गुना बढ़ा देता है। हर योग्य और चरित्रवान् नागरिक इन पंक्तियों को पढ़ते हुए क्षण भर को अपने परिवार में उड़कर आ जाता है, जहाँ उसकी प्रिय पत्नी है । वहाँ वह नागरिक दो स्थितियों पर सोचता है - वह भी अपनी पत्नी की पीठ पर इसी तरह कुछ लिखता रहा है अथवा विगत वर्षों में या अभी तक उसने पीठ पर क्यों नहीं लिखा ? चित्रण की यह जीवन्त प्रभावना ही है जो पाठक को सोचने विवश करती है ।
प्रकृति का ऐसा दुर्लभ चित्रण, जो सौ प्रतिशत मौलिकताओं से सजा - सजा होता है, किसी काव्य ( प्रबन्ध काव्य / महाकाव्य) में अन्यत्र देखने नहीं मिला ।